Thursday, October 21, 2010

टमाटर, पाक और नेताजी

लोग हैरान हैं। टमाटर तीस रुपये किलो!उस पर जो बाजार में है, उसका रंग-रूप देख कर उसे टमाटर कहने को जी नहीं चाहता। पर खाना है, तो ‘टमाटर’ कहना होगा।यूं कहना कि टमाटर के इतने महंगे होने के पीछे पाकिस्तान का हाथ है, हंसी उड़वाने जैसा है। हर करामात में पाकिस्तान का हाथ। यह जुमला बासी पड़ चुका है।ग्लोबल जमाने के समझदारों की राय है कि ऐसा कहना छोटापन है।लेकिन विश्वास कीजिए, टमाटर समस्या की यही हकीकत है।देश का ज्यादातर टमाटर इन दिनों पाकिस्तान के बाढग़्रस्त इलाकों (पाकिस्तानी पंजाब और खैबर) में जा रहा है क्योंकि वहां इसकी कीमत हमारे देश के मुकाबले बहुत ऊंची है।70 रुपये किलो...!तथ्य यह है कि भारत में दुनिया के मात्र 1 प्रतिशत टमाटर की पैदावार होती है और एशिया में टमाटर तथा प्याज की सबसे बड़ी मंडी महाराष्ट्र के पिंपलगांव में है। इन दिनों यहां से प्रतिदिन बमुश्किल 35 ट्रक टमाटर एशिया के सबसे बड़े फल और सब्जी बाजार, दिल्ली की आजादपुर मंडी में पहुंच रहे हैं। जबकि पिंपलगांव से हर चार में से एक ट्रक पाकिस्तान जा रहा है। अमृतसर के पास अटारी सीमा में रिकॉर्ड दर्ज है। हर दिन 135 ट्रकों से ज्यादा सीमा पार कर लाहौर जा रहे हैं। हर ट्रक में करीब 16 टन टमाटर लदा है। वैसे बात सिर्फ टमाटर की नहीं, अन्य सब्जियों और आलू-प्याज-चीनी तथा कपास की भी है, जो धड़ल्ले से सीमा पार भेजे जा रहे हैं।सरकार ने टमाटर और सब्जी के निर्यात मूल्य पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया है। यह सिर्फ प्याज पर लागू है। सरकार को टमाटर के बढ़ते भाव की चिंता है, लगता नहीं। वह जानती है कि जनता को किसी भी कीमत पर जिंदा रहना है और वह रहेगी। खाद्यमंत्री कह चुके हैं कि बिना चीनी खाए लोग मर नहीं जाएंगे। वैसे ही बिना टमाटर के कौन प्राण निकल जाएंगे! ...और टमाटर खाकर किसको गाल सुर्ख बनाना हैं?
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राष्ट्रमंडल खेलों के कारण दिल्ली से हकाला गया एक भिखारी पड़ोसी राज्य के नेताजी के दरवाजे पहुंचा और बोला, बाबा भूखे को कुछ खाने को दे दो...।सजे दरबार का आनंद ले रहे नेताजी ने कहा, ‘अबे भाग... टमाटर खा...’भिखारी बोला, ‘दे दो...बाबा... टमाटर भी चलेगा...’नेता जी इस बार फटकार कर बोले, ‘कहा ना भाग... टमाटर खा...’भिखारी टस से मस नहीं हुआ, तो नेताजी के कारिंदे ने भिखारी को एक लात जमाई और बोला, ‘साले... समझ नहीं आता... नेता जी ने बोला ना... कमाकर खा...’
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नेताजी की जुबान में टेढ़ थी।जय हिंद।
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Tuesday, October 19, 2010

श्री गणपति प्रसंग

भारत भवन भोपाल में 9 और 10 अक्टूबर को -युवा 2- का आयोजन था। हिंदी के बीस संभावनाशील युवा रचनाकारों का कहानीपाठ। कहानीकार मित्रों से तो भेंट हुई, लेकिन एक चित्रकार प्रतिभा से भी परिचय हुआ। अर्पिता रेड्डी। वह हैदराबाद की हैं। उनकी पेंटिंगों की प्रर्दशनी लगी थी। ऐसे दौर में जबकि अबूझ रेखाओं और अमूर्त चित्रों का खूब चलन हैं, अर्पिता केरल की पारंपरिक चित्रकला को आगे बढ़ा रही हैं। लखनऊ से आईं कहानीकार गजल जैगम ने रविवार की शाम के सत्र से पहले इस प्रदर्शनी के बारे में बताया, जो -युवा 2- आयोजन के परिसर में लगी थी। गजल की बात से कोई आकस्मिक उत्साह पैदा नहीं हुआ, लेकिन फिर जिस बात को सुनकर मैं अंदर जाने को मजबूर हुआ, वह यह कि भीतर किसी ने सोलह कला संपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण और भगवान गणपति के अनूठे चित्र बनाए हैं।
यह अर्पिता की चित्रकला थी। केरल चित्रकला के पारंपरिक पंचरंग (लाल, पीला, हरा, काला और सफेद) में रंगी। श्रीकृष्ण और गणेश के विभिन्न खूबसूरत चित्र। जिस चित्र ने मन मोह लिया, वह था पंचमुखी गणपति। यूं तो सभी ने पंचमुखी गणेश के चित्र देखे हैं, लेकिन अर्पिता के लाल आधार वाले चित्र में जो सबसे खास था... और जो अब तक मैंने कहीं नहीं देखा, वह था गणपति के माथे का चंद्रमा उनकी मुट्ठी में सजा!!
क्या यह चित्रकार की कल्पना थी?
अर्पिता से बात करने पर मालूम हुआ कि यह उनके गुरु की पे्ररणा थी।
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जब से सोनाली इंदौर गई है, तब से घर में पूजा नहीं हुई।
परिणाम यह कि इस बार बीती गणेश चतुर्थी पर घर में गणपति नहीं आए। सुबह स्नान करके प्रतिदिन जब पूजा घर के आगे खड़ा होता हूं, तो उसी जगह नजर ठहरती है, जहां ‘नए’ गणपति नहीं विराजे।
गणपति घर में हर बरस आते हैं। किसी देवता की तरह नहीं। न अतिथि की तरह। वह घर के सदस्य होकर आते हैं। बीते बरस की उनकी प्रतिमा विसर्जित होती है। गणपति हमारे संरक्षक हैं, मार्गदर्शक हैं, सखा हैं। गणपति का घर में सबसे नाता है। अपनापा है। सबके लिए उनसे पास कुछ है।
गणपति हमारे ‘सांताक्लॉज’ हैं।
गणपति कनु के ‘हाथी बप्पा’ हैं। वह ‘हाथी बप्पा’ के रूप पर मोहित है।
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हर बरस नए गणपति आते हैं, तो जीवन फिर नया हो जाता है। सुखद और शुभ। उनके आते ही सारा अशुभ, सारे विघ्न अपने आप विदा हो जाते हैं। नई ऊर्जा आती है। घर में। तन में। मन में।
गणपति का यूं हर साल नए रूप में आना लगातार मन में इस विश्वास को मजबूत करता है कि देह रूप बदलती है, जीवन नित्य है।
गणपति के इस बार न आने से एक बात साफ हुई कि जब सोनाली नहीं होती, तो घर में कोई नहीं आता।
नातेदार, मित्र, परिचित... और देवता तक कूच कर जाते हैं।
घर के सारे आयोजन उससे ही हैं।
भगवती उमा की अनुपस्थिति में सोमनाथ के ठिकाने पर भूतों का डेरा रहता है।
क्यों...?
कोई बतलाए कि हम समझाएं क्या...?

Monday, August 16, 2010

jaldi hoga... COME BACK...!!!

Friday, December 19, 2008

सवाल संवेदना पर

लंगूर अपनी पूंछ आखिर कब तक छुपा सकता है? मुंबई पर आतंकवादी हमले को चार हफ्ते गुजरे हैं और अभिनेतागिरी हो या नेतागिरी... असली रंग में आने लगी है। कुछ दिनों पहले बॉलीवुड के जो सुपर सितारे देश की चिंता कर रहे थे, सब कुछ भुला कर इन दिनों अपनी फिल्मों के जोरदार प्रमोशन में लगे हैं। किसी ने नहीं कहा कि वे अपनी फिल्म से होने वाली कमाई के दो दिन या एक दिन का पैसा शहीदों या हमलों में मारे गए लोगों के परिवार को अथवा सरकारी सहायता कोश में देंगे! जबकि उनकी फिल्मों पर पैसा छप्पर फाड़ कर बरस रहा है। शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' (बजट : 12 करोड़ रुपये) ने पहले वीकेंड में दुनिया भर में 60 करोड़ और देश में 25 करोड़ रुपये कमाए हैं। शाहरुख ने फिल्म में ऐक्टिंग के पैसे नहीं लिए हैं और वे इसके मुनाफे में हिस्सा बांट करेंगे। 25 दिसंबर को आ रही आमिर की 'गजनी' रिलीज होने से पहले ही करीब 90 करोड़ रुपये घरेलू और विश्व वितरण बाजार से कमा चुकी है। भरी जेब से दोनों सितारे दो-दो हाथ कर रहे हैं।समझा जा सकता है कि जनता क्यों बॉलीवुड को सीरियसली नहीं लेती!!'राम गोपाल वर्मा ने दो सरकार बनाई और एक गिराई' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। असल में बॉलीवुड में ही एक तबका है, जो बड़े सितारों/निर्देशकों की संवेदनाओं को नकली बता रहा है। पिछले दिनों जो तमाम स्टार आतंकी हमलों के विरुद्ध गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्तियां जला रहे थे, उनकी खबर लेते हुए कहा जा रहा है कि वह सिर्फ डर के कारण था। असल में पहली बार बॉलीवुड के स्टार समुदाय को महसूस हुआ कि आतंकी हमलों की जद में वे भी हैं। ताज और ओबेराय जैसी पांच सितारा होटलों में वही पार्टी करते हैं। अत: उनका डरना और सरकारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाना स्वाभाविक है। हालांकि बॉलीवुड का कोई सितारा इन हमलों में शिकार नहीं हुआ, परंतु अभिनेता आशीष चौधरी की बहन और जीजा इन हमलों में मारे गए थे।बात सिर्फ बॉलीवुड बिरादरी में पड़ी फूट की ही नहीं है। नेताओं ने भी अपनी राजनीति चमकाना शुरू कर दी है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके और इन दिनों अल्पसंख्य मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कह कर आग लगाई है कि महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, विजय सालस्कर और अशोक कामट की शहादत की जांच होनी चाहिए। वे आतंकवादियों की गोलियों से मारे या कुछ और कारण है? करकरे और उनके साथी एक ही गाड़ी में बैठ कर उस जगह क्यों गए, जहां उन्हें गोलियां लगी? अंतुले का इशारा इस ओर है कि करकरे जिस मालेगांव बम विस्फोट कांड की जांच कर रहे थे, उसमें गैर-मुसलिमों का नाम आया है। अंतुले के अनुसार,'जो लोग आतंकवाद की जड़ों तक पहुंचते हैं, वे अक्सर शिकार बन जाते हैं।' सवाल उठता है कि ऐसे वक्त जबकि पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है और दुनिया के हर कोने से उसे समर्थन हासिल है, यह सांप्रदायिक बात कह कर नेताजी क्या साबित करना चाहते हैं? नेताओं-अभिनेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्यों राजनीति और मनोरंजन के नाम पर जल्दी से जल्दी सब कुछ सामान्य बना कर लोगों के सोचने-विचारने की ताकत पर लगाम लगाने की कोशिशें होती है? अब इस सवाल के जवाब में नेताओं-अभिनेताओं की संवेदना पर सवाल न उठें, तो और क्या हो?

Wednesday, December 17, 2008

कौन करे समीक्षक की परवाह?

यह बात लोगों को आकर्षित करती है कि आप फिल्म समीक्षक हैं। लोग समझते है कि आपके मजे हैं। मुफ्त फिल्में देखते हैं। समीक्षा में ज्यादा स्टार पाने के लिए सितारे और निर्देशक आपकी चिरौरी करते हैं। प्रोड्यूसर 'गिफ्ट' देता है। वगैरह वगैरह। परंतु हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। अधिकतर अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर फिल्म समीक्षा ऐसे अंदाज में होती है, मानो इसके लिए किसी योग्यता की ही जरूरत नहीं। कभी समीक्षक के शब्दों की गरिमा होती थी। लेकिन अब सिनेमा हॉल से निकलता दर्शक जो दो शब्द कैमरे के सामने कह दे, वही सच है। इस परिदृश्य में कौन समीक्षक की परवाह करे? मुंबई की घटना है। एक पीआरओ ने अपनी फिल्म के पे्रस शो में से एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक को भगा दिया। समीक्षक देर से प्रिव्यू-थियेटर में पहुंचा था। जहां उसकी सीट हमेशा तय होती है। उस दिन समीक्षक देर से आया। सीट पर कोई और था। समीक्षक की जिद थी, वह उसी सीट पर बैठेगा। पीआरओ अपनी पुरानी फिल्मों की खिंचाई पर पहले ही समीक्षक से चिढ़ा था। उसने समीक्षक को सार्वजनिक रूप से अपमानित करके भगा दिया कि उसे मालूम है, वह इस फिल्म के बारे मे बुरा ही लिखेगा!! वहां मौजूद बाकी समीक्षक भीगी बिल्ली बने, गरजते पीआरओ को देखते रहते। असल में, प्रेस शो अब वह अवसर है, जिसे पीआरओ प्रोड्यूसर के पैसों से समोसे, सैंडविच, वेफर, एक मिठाई और छोटे वाले कोल्ड ड्रिंक से सजाता है। समीक्षक फिल्म देखता है और इंटरवेल में 'अल्पाहार' करते हुए फिल्म की नुक्ताचीनी करता है। पे्रस शो में फिल्म देखने से समीक्षक को सिर्फ इतना लाभ होता है कि हॉल में खर्च होने वाले उसके सौ-सवा सौ रुपये बच जाते हैं!वास्तव में, सिनेमा के धंधे में अब फिल्म समीक्षक सबसे गौण हो गया है। प्रोड्यूसर को रिलीज से पहले पब्लिसिटी चाहिए होती है। वह पहले से टीवी चैनलों के लिए 'बाइट्स' तथा प्रिंट के लिए 'स्टोरीज' तैयार रखता है। सिने-मीडिया को रेडीमेड सामग्री मिलती है और इस समाग्री से फिल्म पत्रकारिता का निर्वाह होता है। फिल्म का डायरेक्टर और ऐक्टर रिलीज से पहले एकाध घंटे के लिए मीडिया को उपलब्ध होते हैं। यदि फिल्म का हीरो कोई सितारा हुआ, तो वह कुछ मिनटों के लिए मिलता है। हालांकि सितारा अगर प्रोड्यूसर भी हुआ, तो मीडिया को पर्याप्त एंटरटेन करता है। वह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देता है, तो चैनल पर 'स्पेशल और फेवरेबल' कवरेज भी मांगता हैं। चैनलों की मजबूरी है। वे सितारों के आगे झुकते हैं।वैसे अब फिल्म के प्रिव्यू की अनिवार्यता भी खत्म हो रही है। भट्ट कैंप ने तो लंबा अर्सा हुआ, मीडिया को फिल्म दिखाना बंद कर दिया। पे्रस प्रीव्यू अब पीआर कंपनियों के भरोसे चलते हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियां नई-नवेली युवतियों के भरोसे चलती हैं। जिन्हें न मीडिया की समझ होती है और न समीक्षकों का पता। ज्यादातर पीआर कंपनियां प्रेस शो के नाम पर 'फस्ट डे फस्र्ट शो' के टिकट समीक्षकों को उपलब्ध कराती हैं। इधर, फिल्म के प्रीमियर का चलन भी कम हो चला है। किसी फिल्म का प्रीमियर होता भी है, तो सितारों, उनके मेहमानों और फिल्म से जुड़े लोगों के लिए। सीटें बची, तो समीक्षक को एकाध घंटे पहले निमंत्रण मिलता है। विडंबना देखिए कि जो समीक्षक फिल्म के बारे में घंटों बोलते और कई कई पन्ने लिखते हैं, खुद अपने हाल पर न कभी उनकी जुबान खुलती है और न कलम चलती है।

मंत्र सिर्फ एक है

बॉलीवुड परेशान है कि लोग फिल्म देखने नहीं निकल रहे। पिछले कुछ सालों में मॉल और मल्टीप्लेक्स कल्चर ने लोगों में 'आउटिंग' का आकर्षण पैदा किया था। लेकिन अब वहां पर बमों के डर ने लोगों को घर में रहने को मजबूर कर दिया है। देश के तमाम हिस्सों में 'बम' का डर जनता के अचेतन मन में फिट हो चुका है!! मायानगरी मुंबई का हाल यह है कि लोकल टे्रनों में और सडक़ों पर अब सुबह के वक्त 26/11 से पहले जैसी भीड़ नहीं दिखती। दिन भर वातानुकूलित मॉल में विंडो शॉपिंग करने का उत्साह लोगों में कम हो गया है। मल्टीप्लेक्स खाली हैं। बिजली-पानी का खर्च नहीं निकल रहा। तय हो गया है कि मॉलों में खुली दुकानों का किराया नए साल में नहीं बढ़ेगा। मल्टीप्लेक्स भी सस्ते टिकटों की योजना बना रहे हैं। परंतु इस आलम के लिए बमों के अलावा एक और कारण जिम्मेदार है। आम आदमी की जेब का खस्ता हाल। महंगा दाल-दाना, दूध-सब्जी...। मनोरंजन जरूरी है या किचन, बच्चों की पढ़ाई, घर का बिजली-पानी-पेट्रोल? आम आदमी के पास जवाब है। परंतु बॉलीवुड को इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि आखिर कैसे दर्शकों को सिनेमाघरों में लाया जाए? बीते हफ्तों में आई दोस्ताना, दस्विदानिया, युवराज, ओय लकी लकी ओय, सॉरी भाई, मीरा बाई नॉट आउट, ओ माई गॉड, दिल कबड्डी, महारथी और गुमनाम-द मिस्ट्री का बुरा हाल है। उधर, फिल्मों की पायरेसी ने बॉलीवुड की कमर तोड़ रखी है। 'रब ने बना दी जोड़ी' की रिलीज से पहले ही लोग पायरेटेड सीडी बेचने वालों से पूछ रहे थे, 'क्यों भाई, आ गई क्या...?'वास्तव में बॉलीवुड के सवाल का एक ही जवाब है। फिल्म अच्छी है, तो लोग सिनेमाघरों में जरूर जाएंगे। फिर चाहे आंधी आए या तूफान। सिनेमा के लिए दर्शक जुटाने का इससे बढ़ कर कोई मंत्र नहीं। जब 'रंग दे बसंती' आई थी, तो लोगों ने एक-दूसरे को इस बात के लिए पे्ररित किया था कि इसे हॉल में ही देखें। पायरेटेड सीडी पर नहीं। ऐसा ही हुआ भी। सच तो यह है कि बाजार के चाहे सारे काम जुगाड़ से संवर जाएं, परंतु दर्शकों को जुगाड़ से सिनेमाघरों में नहीं खींचा जा सकता। फिलहाल उम्मीदें शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' से हैं। आने वाले दिनों में 'गजनी' और 'चांदनी चौक टू चाइना' पर भी नजरें हैं। लेकिन शर्त एक ही कि फिल्म अच्छी होगी, तो सिनेमाघर भरेंगे। वर्ना ना देखने के बहाने सौ।असल में बॉलीवुड के पास तात्कालिक या दूरगामी संकटों से निपटने की कोई योजना नहीं होती। जरा हॉलीवुड को देखिए। दुनिया भर के बाजारों में पिछले दिनों आई मंदी के कारण हॉलीवुड के बड़े स्टूडियोज को भारी नुकसान हुआ है। अब ये स्टूडियो साल 2009 और 2010 के लिए ऐसी कहानियों की तलाश में जुट गए हैं, जिनमें 'युनिवर्सल अपील' हो। उनके सामने तस्वीर साफ है कि कैसी फिल्में बनानी है? वे दुनिया के हर कोने में सिनेमा के बाजार से धन खींचेंगे। उनका निशाना बॉलीवुड भी होगा। इससे मुकाबले के लिए क्या बॉलीवुड ने कुछ सोचा है? बिल्कुल नहीं। यह साल बॉलीवुड के लिए अच्छा नहीं रहा। बड़े बैनरों-सितारों की फिल्में ध्वस्त हुईं। अब जबकि हॉलीवुड अपनी रणनीति अगले 2 सालों के लिए बना चुका है और अच्छी कहानियों की तलाश में है, तो बॉलीवुड को भी गंभीर होना चाहिए। सिर्फ नकल से कब तक काम चलेगा?

Thursday, December 11, 2008

संजय का संसद स्वप्न

देश में सडक़ से संसद तक पहुंचने का रास्ता आसान है या फिर जेल से संसद तक का सफर...? चर्चा करके देखिए, इस सवाल का जवाब कमोबेश समान ही होगा। फिल्म अभिनेता संजय दत्त इन दिनों संसद में कुर्सी संभालने पर विचार कर रहे हैं। देश में ऐसे कई सांसद-विधायक हैं, जो अपना दामन पाक-साफ साबित करने की लड़ाई अदालतों में लड़ रहे हैं। संजय दत्त को 1993 के हुए मुंबई बम धमाकों के दौरान अवैध ढंग से हथियार रखने के मामले में दोषी पाया गया। टाडा कोर्ट ने पिछले साल उन्हें 6 वर्ष कैद की सजा सुनाई थी। संजय ने इन निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है और इन दिनों जमानत पर बाहर हैं। इस मामले में जो भी फैसला आए, वे अगले साल अपै्रल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव तो लड़ ही सकते हैं। असल में, संजय दत्त से ज्यादा उनकी पत्नी मान्यता चाहती हैं कि उनके पति चुनाव लड़ें। मान्यता का विश्वास है कि संजू देश के किसी भी कोने से चुनाव लड़ें। वे जीतेंगे अवश्य। संजय को किसी पार्टी की भी जरूरत नहीं।पिछले कुछ महीनों में मान्यता बॉलीवुड की 'हाई-प्रोफाइल वाइफÓ के रूप में उभरी हैं। इस साल फरवरी में संजय से विवाह से पहले उनकी कोई पहचान नहीं थी। बॉलीवुड में उन्हें कुछ लोग एक स्ट्रगलर के रूप में जरूर जानते थे। खैर, मान्यता अब संजय की पत्नी ही नहीं, मित्र और मंत्री भी हैं। मान्यता के साथ संजय की शादी पर कई सवाल उठे। परंतु अब सब ठीक है। संजय से विवाह के बाद मान्यता एक समाजिक कार्यकता के रूप में अपनी छवि बनाने में जुटी हैं। उनकी अपनी निजी संस्था है, 'डैमेज'। जो मुंबई में दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले गरीबों की आर्थिक और अन्य मदद करती है। इस संस्था के लिए पैसा खुद संजय दत्त देते हैं। वो जो भी फिल्म साइन करते हैं, उसकी फीस में से 5 से 7 लाख रुपया, मान्यता की संस्था को जाता है। पिछले दिनों मुंबई पर आतंकवादी हमले के विरुद्ध बॉलीवुड का जो 'मोमबत्ती मूवमेंट' हुआ, उसे आयोजित करने में मान्यता का बड़ा हाथ था। लोग यह सोचने लगे हैं कि क्या मान्यता संजय की मां, नर्गिस दत्त के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश कर रही हैं?मान्यता का दावा है कि संजय दत्त बहुत अच्छे नेता साबित होंगे क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ देखा है। वे दूसरों का दुख-दर्द समझते हैं। संजय नर्म दिल इनसान हैं। सच तो यह है कि संजय अब राजनीति में आ चुके होते। उनके पिता, सुनील दत्त के निधन के बाद जब कांगे्रस ने उनके राजनीतिक वारिस की खोज शुरू की, तो पहला नाम संजय का ही था। परंतु संजू बाबा के विवादास्पद जीवन के कारण उनकी बहन प्रिया को सुनील दत्त की गद्दी दी गई। प्रिया ने अपने काम से इस फैसले को सही साबित भी किया। संजय अपनी दोनों बहनों, प्रिया और नम्रता से बहुत प्यार करते हैं। अत: उन्हें इस बात की टीस नहीं कि पिता के राजनीतिक वारिस वे नहीं बन सके। परंतु राजनीतिक चेतना उन्हें खून में मिली है। संजय कहते हैं कि मैं पहले भारतीय हूं और उसके बाद अभिनेता। जब मुंबई पर हुए आतंकी हमले की खबर उन्हें मिली, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, 'काश! मैं कमांडो होता...।' अपने अगले जन्मदिन पर वे 50 साल के हो जाएंगे। अब देखना होगा कि संजय सक्रिय राजनीति में आने की घोषणा कब तक करते हैं?