Friday, December 19, 2008

सवाल संवेदना पर

लंगूर अपनी पूंछ आखिर कब तक छुपा सकता है? मुंबई पर आतंकवादी हमले को चार हफ्ते गुजरे हैं और अभिनेतागिरी हो या नेतागिरी... असली रंग में आने लगी है। कुछ दिनों पहले बॉलीवुड के जो सुपर सितारे देश की चिंता कर रहे थे, सब कुछ भुला कर इन दिनों अपनी फिल्मों के जोरदार प्रमोशन में लगे हैं। किसी ने नहीं कहा कि वे अपनी फिल्म से होने वाली कमाई के दो दिन या एक दिन का पैसा शहीदों या हमलों में मारे गए लोगों के परिवार को अथवा सरकारी सहायता कोश में देंगे! जबकि उनकी फिल्मों पर पैसा छप्पर फाड़ कर बरस रहा है। शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' (बजट : 12 करोड़ रुपये) ने पहले वीकेंड में दुनिया भर में 60 करोड़ और देश में 25 करोड़ रुपये कमाए हैं। शाहरुख ने फिल्म में ऐक्टिंग के पैसे नहीं लिए हैं और वे इसके मुनाफे में हिस्सा बांट करेंगे। 25 दिसंबर को आ रही आमिर की 'गजनी' रिलीज होने से पहले ही करीब 90 करोड़ रुपये घरेलू और विश्व वितरण बाजार से कमा चुकी है। भरी जेब से दोनों सितारे दो-दो हाथ कर रहे हैं।समझा जा सकता है कि जनता क्यों बॉलीवुड को सीरियसली नहीं लेती!!'राम गोपाल वर्मा ने दो सरकार बनाई और एक गिराई' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। असल में बॉलीवुड में ही एक तबका है, जो बड़े सितारों/निर्देशकों की संवेदनाओं को नकली बता रहा है। पिछले दिनों जो तमाम स्टार आतंकी हमलों के विरुद्ध गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्तियां जला रहे थे, उनकी खबर लेते हुए कहा जा रहा है कि वह सिर्फ डर के कारण था। असल में पहली बार बॉलीवुड के स्टार समुदाय को महसूस हुआ कि आतंकी हमलों की जद में वे भी हैं। ताज और ओबेराय जैसी पांच सितारा होटलों में वही पार्टी करते हैं। अत: उनका डरना और सरकारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाना स्वाभाविक है। हालांकि बॉलीवुड का कोई सितारा इन हमलों में शिकार नहीं हुआ, परंतु अभिनेता आशीष चौधरी की बहन और जीजा इन हमलों में मारे गए थे।बात सिर्फ बॉलीवुड बिरादरी में पड़ी फूट की ही नहीं है। नेताओं ने भी अपनी राजनीति चमकाना शुरू कर दी है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके और इन दिनों अल्पसंख्य मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कह कर आग लगाई है कि महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, विजय सालस्कर और अशोक कामट की शहादत की जांच होनी चाहिए। वे आतंकवादियों की गोलियों से मारे या कुछ और कारण है? करकरे और उनके साथी एक ही गाड़ी में बैठ कर उस जगह क्यों गए, जहां उन्हें गोलियां लगी? अंतुले का इशारा इस ओर है कि करकरे जिस मालेगांव बम विस्फोट कांड की जांच कर रहे थे, उसमें गैर-मुसलिमों का नाम आया है। अंतुले के अनुसार,'जो लोग आतंकवाद की जड़ों तक पहुंचते हैं, वे अक्सर शिकार बन जाते हैं।' सवाल उठता है कि ऐसे वक्त जबकि पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है और दुनिया के हर कोने से उसे समर्थन हासिल है, यह सांप्रदायिक बात कह कर नेताजी क्या साबित करना चाहते हैं? नेताओं-अभिनेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्यों राजनीति और मनोरंजन के नाम पर जल्दी से जल्दी सब कुछ सामान्य बना कर लोगों के सोचने-विचारने की ताकत पर लगाम लगाने की कोशिशें होती है? अब इस सवाल के जवाब में नेताओं-अभिनेताओं की संवेदना पर सवाल न उठें, तो और क्या हो?

Wednesday, December 17, 2008

कौन करे समीक्षक की परवाह?

यह बात लोगों को आकर्षित करती है कि आप फिल्म समीक्षक हैं। लोग समझते है कि आपके मजे हैं। मुफ्त फिल्में देखते हैं। समीक्षा में ज्यादा स्टार पाने के लिए सितारे और निर्देशक आपकी चिरौरी करते हैं। प्रोड्यूसर 'गिफ्ट' देता है। वगैरह वगैरह। परंतु हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। अधिकतर अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर फिल्म समीक्षा ऐसे अंदाज में होती है, मानो इसके लिए किसी योग्यता की ही जरूरत नहीं। कभी समीक्षक के शब्दों की गरिमा होती थी। लेकिन अब सिनेमा हॉल से निकलता दर्शक जो दो शब्द कैमरे के सामने कह दे, वही सच है। इस परिदृश्य में कौन समीक्षक की परवाह करे? मुंबई की घटना है। एक पीआरओ ने अपनी फिल्म के पे्रस शो में से एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक को भगा दिया। समीक्षक देर से प्रिव्यू-थियेटर में पहुंचा था। जहां उसकी सीट हमेशा तय होती है। उस दिन समीक्षक देर से आया। सीट पर कोई और था। समीक्षक की जिद थी, वह उसी सीट पर बैठेगा। पीआरओ अपनी पुरानी फिल्मों की खिंचाई पर पहले ही समीक्षक से चिढ़ा था। उसने समीक्षक को सार्वजनिक रूप से अपमानित करके भगा दिया कि उसे मालूम है, वह इस फिल्म के बारे मे बुरा ही लिखेगा!! वहां मौजूद बाकी समीक्षक भीगी बिल्ली बने, गरजते पीआरओ को देखते रहते। असल में, प्रेस शो अब वह अवसर है, जिसे पीआरओ प्रोड्यूसर के पैसों से समोसे, सैंडविच, वेफर, एक मिठाई और छोटे वाले कोल्ड ड्रिंक से सजाता है। समीक्षक फिल्म देखता है और इंटरवेल में 'अल्पाहार' करते हुए फिल्म की नुक्ताचीनी करता है। पे्रस शो में फिल्म देखने से समीक्षक को सिर्फ इतना लाभ होता है कि हॉल में खर्च होने वाले उसके सौ-सवा सौ रुपये बच जाते हैं!वास्तव में, सिनेमा के धंधे में अब फिल्म समीक्षक सबसे गौण हो गया है। प्रोड्यूसर को रिलीज से पहले पब्लिसिटी चाहिए होती है। वह पहले से टीवी चैनलों के लिए 'बाइट्स' तथा प्रिंट के लिए 'स्टोरीज' तैयार रखता है। सिने-मीडिया को रेडीमेड सामग्री मिलती है और इस समाग्री से फिल्म पत्रकारिता का निर्वाह होता है। फिल्म का डायरेक्टर और ऐक्टर रिलीज से पहले एकाध घंटे के लिए मीडिया को उपलब्ध होते हैं। यदि फिल्म का हीरो कोई सितारा हुआ, तो वह कुछ मिनटों के लिए मिलता है। हालांकि सितारा अगर प्रोड्यूसर भी हुआ, तो मीडिया को पर्याप्त एंटरटेन करता है। वह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देता है, तो चैनल पर 'स्पेशल और फेवरेबल' कवरेज भी मांगता हैं। चैनलों की मजबूरी है। वे सितारों के आगे झुकते हैं।वैसे अब फिल्म के प्रिव्यू की अनिवार्यता भी खत्म हो रही है। भट्ट कैंप ने तो लंबा अर्सा हुआ, मीडिया को फिल्म दिखाना बंद कर दिया। पे्रस प्रीव्यू अब पीआर कंपनियों के भरोसे चलते हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियां नई-नवेली युवतियों के भरोसे चलती हैं। जिन्हें न मीडिया की समझ होती है और न समीक्षकों का पता। ज्यादातर पीआर कंपनियां प्रेस शो के नाम पर 'फस्ट डे फस्र्ट शो' के टिकट समीक्षकों को उपलब्ध कराती हैं। इधर, फिल्म के प्रीमियर का चलन भी कम हो चला है। किसी फिल्म का प्रीमियर होता भी है, तो सितारों, उनके मेहमानों और फिल्म से जुड़े लोगों के लिए। सीटें बची, तो समीक्षक को एकाध घंटे पहले निमंत्रण मिलता है। विडंबना देखिए कि जो समीक्षक फिल्म के बारे में घंटों बोलते और कई कई पन्ने लिखते हैं, खुद अपने हाल पर न कभी उनकी जुबान खुलती है और न कलम चलती है।

मंत्र सिर्फ एक है

बॉलीवुड परेशान है कि लोग फिल्म देखने नहीं निकल रहे। पिछले कुछ सालों में मॉल और मल्टीप्लेक्स कल्चर ने लोगों में 'आउटिंग' का आकर्षण पैदा किया था। लेकिन अब वहां पर बमों के डर ने लोगों को घर में रहने को मजबूर कर दिया है। देश के तमाम हिस्सों में 'बम' का डर जनता के अचेतन मन में फिट हो चुका है!! मायानगरी मुंबई का हाल यह है कि लोकल टे्रनों में और सडक़ों पर अब सुबह के वक्त 26/11 से पहले जैसी भीड़ नहीं दिखती। दिन भर वातानुकूलित मॉल में विंडो शॉपिंग करने का उत्साह लोगों में कम हो गया है। मल्टीप्लेक्स खाली हैं। बिजली-पानी का खर्च नहीं निकल रहा। तय हो गया है कि मॉलों में खुली दुकानों का किराया नए साल में नहीं बढ़ेगा। मल्टीप्लेक्स भी सस्ते टिकटों की योजना बना रहे हैं। परंतु इस आलम के लिए बमों के अलावा एक और कारण जिम्मेदार है। आम आदमी की जेब का खस्ता हाल। महंगा दाल-दाना, दूध-सब्जी...। मनोरंजन जरूरी है या किचन, बच्चों की पढ़ाई, घर का बिजली-पानी-पेट्रोल? आम आदमी के पास जवाब है। परंतु बॉलीवुड को इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि आखिर कैसे दर्शकों को सिनेमाघरों में लाया जाए? बीते हफ्तों में आई दोस्ताना, दस्विदानिया, युवराज, ओय लकी लकी ओय, सॉरी भाई, मीरा बाई नॉट आउट, ओ माई गॉड, दिल कबड्डी, महारथी और गुमनाम-द मिस्ट्री का बुरा हाल है। उधर, फिल्मों की पायरेसी ने बॉलीवुड की कमर तोड़ रखी है। 'रब ने बना दी जोड़ी' की रिलीज से पहले ही लोग पायरेटेड सीडी बेचने वालों से पूछ रहे थे, 'क्यों भाई, आ गई क्या...?'वास्तव में बॉलीवुड के सवाल का एक ही जवाब है। फिल्म अच्छी है, तो लोग सिनेमाघरों में जरूर जाएंगे। फिर चाहे आंधी आए या तूफान। सिनेमा के लिए दर्शक जुटाने का इससे बढ़ कर कोई मंत्र नहीं। जब 'रंग दे बसंती' आई थी, तो लोगों ने एक-दूसरे को इस बात के लिए पे्ररित किया था कि इसे हॉल में ही देखें। पायरेटेड सीडी पर नहीं। ऐसा ही हुआ भी। सच तो यह है कि बाजार के चाहे सारे काम जुगाड़ से संवर जाएं, परंतु दर्शकों को जुगाड़ से सिनेमाघरों में नहीं खींचा जा सकता। फिलहाल उम्मीदें शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' से हैं। आने वाले दिनों में 'गजनी' और 'चांदनी चौक टू चाइना' पर भी नजरें हैं। लेकिन शर्त एक ही कि फिल्म अच्छी होगी, तो सिनेमाघर भरेंगे। वर्ना ना देखने के बहाने सौ।असल में बॉलीवुड के पास तात्कालिक या दूरगामी संकटों से निपटने की कोई योजना नहीं होती। जरा हॉलीवुड को देखिए। दुनिया भर के बाजारों में पिछले दिनों आई मंदी के कारण हॉलीवुड के बड़े स्टूडियोज को भारी नुकसान हुआ है। अब ये स्टूडियो साल 2009 और 2010 के लिए ऐसी कहानियों की तलाश में जुट गए हैं, जिनमें 'युनिवर्सल अपील' हो। उनके सामने तस्वीर साफ है कि कैसी फिल्में बनानी है? वे दुनिया के हर कोने में सिनेमा के बाजार से धन खींचेंगे। उनका निशाना बॉलीवुड भी होगा। इससे मुकाबले के लिए क्या बॉलीवुड ने कुछ सोचा है? बिल्कुल नहीं। यह साल बॉलीवुड के लिए अच्छा नहीं रहा। बड़े बैनरों-सितारों की फिल्में ध्वस्त हुईं। अब जबकि हॉलीवुड अपनी रणनीति अगले 2 सालों के लिए बना चुका है और अच्छी कहानियों की तलाश में है, तो बॉलीवुड को भी गंभीर होना चाहिए। सिर्फ नकल से कब तक काम चलेगा?

Thursday, December 11, 2008

संजय का संसद स्वप्न

देश में सडक़ से संसद तक पहुंचने का रास्ता आसान है या फिर जेल से संसद तक का सफर...? चर्चा करके देखिए, इस सवाल का जवाब कमोबेश समान ही होगा। फिल्म अभिनेता संजय दत्त इन दिनों संसद में कुर्सी संभालने पर विचार कर रहे हैं। देश में ऐसे कई सांसद-विधायक हैं, जो अपना दामन पाक-साफ साबित करने की लड़ाई अदालतों में लड़ रहे हैं। संजय दत्त को 1993 के हुए मुंबई बम धमाकों के दौरान अवैध ढंग से हथियार रखने के मामले में दोषी पाया गया। टाडा कोर्ट ने पिछले साल उन्हें 6 वर्ष कैद की सजा सुनाई थी। संजय ने इन निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है और इन दिनों जमानत पर बाहर हैं। इस मामले में जो भी फैसला आए, वे अगले साल अपै्रल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव तो लड़ ही सकते हैं। असल में, संजय दत्त से ज्यादा उनकी पत्नी मान्यता चाहती हैं कि उनके पति चुनाव लड़ें। मान्यता का विश्वास है कि संजू देश के किसी भी कोने से चुनाव लड़ें। वे जीतेंगे अवश्य। संजय को किसी पार्टी की भी जरूरत नहीं।पिछले कुछ महीनों में मान्यता बॉलीवुड की 'हाई-प्रोफाइल वाइफÓ के रूप में उभरी हैं। इस साल फरवरी में संजय से विवाह से पहले उनकी कोई पहचान नहीं थी। बॉलीवुड में उन्हें कुछ लोग एक स्ट्रगलर के रूप में जरूर जानते थे। खैर, मान्यता अब संजय की पत्नी ही नहीं, मित्र और मंत्री भी हैं। मान्यता के साथ संजय की शादी पर कई सवाल उठे। परंतु अब सब ठीक है। संजय से विवाह के बाद मान्यता एक समाजिक कार्यकता के रूप में अपनी छवि बनाने में जुटी हैं। उनकी अपनी निजी संस्था है, 'डैमेज'। जो मुंबई में दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले गरीबों की आर्थिक और अन्य मदद करती है। इस संस्था के लिए पैसा खुद संजय दत्त देते हैं। वो जो भी फिल्म साइन करते हैं, उसकी फीस में से 5 से 7 लाख रुपया, मान्यता की संस्था को जाता है। पिछले दिनों मुंबई पर आतंकवादी हमले के विरुद्ध बॉलीवुड का जो 'मोमबत्ती मूवमेंट' हुआ, उसे आयोजित करने में मान्यता का बड़ा हाथ था। लोग यह सोचने लगे हैं कि क्या मान्यता संजय की मां, नर्गिस दत्त के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश कर रही हैं?मान्यता का दावा है कि संजय दत्त बहुत अच्छे नेता साबित होंगे क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ देखा है। वे दूसरों का दुख-दर्द समझते हैं। संजय नर्म दिल इनसान हैं। सच तो यह है कि संजय अब राजनीति में आ चुके होते। उनके पिता, सुनील दत्त के निधन के बाद जब कांगे्रस ने उनके राजनीतिक वारिस की खोज शुरू की, तो पहला नाम संजय का ही था। परंतु संजू बाबा के विवादास्पद जीवन के कारण उनकी बहन प्रिया को सुनील दत्त की गद्दी दी गई। प्रिया ने अपने काम से इस फैसले को सही साबित भी किया। संजय अपनी दोनों बहनों, प्रिया और नम्रता से बहुत प्यार करते हैं। अत: उन्हें इस बात की टीस नहीं कि पिता के राजनीतिक वारिस वे नहीं बन सके। परंतु राजनीतिक चेतना उन्हें खून में मिली है। संजय कहते हैं कि मैं पहले भारतीय हूं और उसके बाद अभिनेता। जब मुंबई पर हुए आतंकी हमले की खबर उन्हें मिली, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, 'काश! मैं कमांडो होता...।' अपने अगले जन्मदिन पर वे 50 साल के हो जाएंगे। अब देखना होगा कि संजय सक्रिय राजनीति में आने की घोषणा कब तक करते हैं?

Wednesday, December 10, 2008

जो अपराधी नहीं होंगे...


अमिताभ बच्चन जैसे सुपर सितारे को भी सरकारी तथा निजी सुरक्षा गार्डों से घिरे होने बावजूद जेब में पिस्तौल रखनी पड़ती है!! यह बात सामने नहीं आती, अगर मुंबई हवाई अड्डे पर उनकी पिस्तौल और उसके लाइसेंस की जानकारियां आपस में मेल खा जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बात खुल गई। साफ है कि देश में आज आम हो या खास, हर कोई अपनी जान की सुरक्षा के लिए चिंतित है? दिल्ली, जयपुर, मुंबई से लेकर गुवाहाटी और बंगलूरू तक जनता सरकार से पूछ रही है कि क्या सिर्फ नेताओं को सुरक्षा की जरूरत है? जनता का क्या... जो आतंकियों के बम-बंदूकों में मरी जा रही है। सो, अब चर्चा चल पड़ी है कि क्या लोगों को पिस्तौल, बंदूक जैसे हथियारों के लाइसेंस देने के नियमों को ढीला करने का वक्त आ गया? किसी समय अंडरवल्र्ड से संबंध और अवैध हथियार रखने के मुकदमों के साये में जी रहे संजय दत्त इसके पक्ष में हैं। एक टीवी चैनल पर उन्होंने कहा है कि मैं अपने कुछ दोस्तों से मुंबई पर आतंकी हमले के बाद बात कर रहा था। सब सहमत थे कि यदि उस दिन ताज या ओबेराय में दस लोगों के पास भी निजी सुरक्षा के लिए पिस्तौल होती, तो तस्वीर बदल भी सकती थी।वाकई। परंतु किसी भी आम-ओ-खास को निजी हथियार का लाइसेंस आसानी से देने का मसला काफी टेढ़ा है। समाज में गुस्सा बढ़ रहा है। व्यक्ति के घर-दफ्तर में तनाव बढ़ गया है। गला काट प्रतिद्ंवद्विता के दौर में एक-दूसरे की असहमति सहने की कूवत कम हो रही है। क्षमा का भाव लगभग समाप्त है। ऐसे में हमारे समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले फिल्मी हीरो या तो पिस्तौल लेकर चल रहे हैं या फिर उसे आसानी से मुहैया कराने की वकालत कर रहे हैं!! बंदूक और पिस्तौल का भी नशा होता है। नशा व्यक्ति को अनियंत्रित करता है। वैसे, इससे बेपरवाह चंबल में स्थित शिवपुरी शहर के प्रशासन ने इस साल एक अनोखी योजना लागू की। इलाके के जो पुरुष नसबंदी कराएंगे, उन्हें बंदूक के लाइसेंस जल्दी मिल जाएंगे!! परिणाम यह कि योजना से पहले बीते एक बरस में मात्र 8 पुरुषों ने नसबंदी कराई थी, योजना के बाद अब तक करीब 250 मर्द ऐसा करा चुके हैं। क्या यह योजना देश में जल्दी बंदूक का लाइसेंस चाहने वालों के लिए लागू की जा सकती है? निश्चित रूप से फिल्मी सितारों पर भी यह बात लागू होगी...!!इसी साल सोहा अली खान के बारे में खबर थी कि गुडग़ांव प्रशासन ने उन्हें 18 की उम्र में बंदूक का लाइसेंस दिया था। जबकि कानून में 21 से पहले ऐसे हथियारों के लाइसेंस की मनाही है। बात हाई-प्रोफाइल थी, सो बिना तूल के मामला निपटा लिया गया। देश में रईसों के बिगडैलों की खबरें कम नहीं आतीं। वैसे देखा यही गया है कि फिल्मी सितारे सफलता का नशा संभाल नहीं पाते। उस पर यदि वे खुलेआम पिस्तौल लेकर घूमेंगे और उनसे युवा प्रभावित होंगे, तो समाज का क्या होगा? वास्तव में, नेता-अभिनेता तो सुरक्षा का सामान साथ लेकर चल सकते हैं। परंतु आम आदमी क्या करे जो सडक़ पर खुला चलता है। हिंदी की वर्तमान कविता के प्रमुख हस्ताक्षर राजेश जोशी ने लिखा है-सबसे बड़ा अपराध है इस समय/निहत्थे और निरपराध होना/जो अपराधी नहीं होंगे/मारे जाएंगे...।बीती सदी के आखिरी वर्षों में लिखी गई इन पंक्तियों में आम आदमी की जो लाचारी झलकती थी। वही अब भी झलक रही है।

Thursday, December 4, 2008

बचाएं इस रियेलिटी से


बीते हफ्ते मुंबई को करीब 60 घंटों तक बंधक बनाए रखने वाली आतंकी दुर्घटना को क्या आप बड़े परदे पर देखना चाहेंगे? यह सवाल खुद के पूछने का है। मुंबई में जो कुछ हुआ, लोग अपने ढंग से उसकी व्याख्या कर रहे हैं। कोई देश/राजनीति/सुरक्षा तंत्र के लिए इसे शर्मनाक बता रहा है, तो कोई इसे आतंकियों को पोसने वाले पड़ोसी पाकिस्तान को करारा जवाब देने का मौका। किसी के लिए यह पूरा घटनाक्रम राजनीतिक रोटियां सेंकने वाला तंदूर है, तो किसी के लिए सबक लेने का पाठ्यक्रम। मुंबई की गोद में बैठे बॉलीवुड के लिए यह घटना उसे उधेड़बुन में डालने वाली है। कोई और मौका होता, तो इंडस्ट्री के तमाम 'भट्ट' अब तक इस विषय पर तत्काल 'रियलिस्टिक' फिल्म बनाने की घोषणा कर देते। मुंबई के 1993 में हुए बम धमाके, उसके बाद दंगे, मुंबई का अंडरवल्र्ड, मुंबई पर बारिश का बेरहम कहर, मुंबई की लोकल टे्रनों में बम ब्लास्ट... इन सब पर फिल्म बनाने से खूब पब्लिसिटी मिलती है। परंतु इस बार मामला काफी संवेदनशील है और कोई इस पर फिल्म बनाने की बात करके लोगों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता। इससे पहले कि कोई फिल्मकार एक शब्द कहता, एक एसएमएस लोगों के पास पहुंच गया। जो कह रहा है, 'हम महेश भट्ट, राम गोपाल वर्मा, संजय गुप्ता, राहुल ढोलकिया और अपूर्व लखिया जैसों से पूरी विनम्रता से अपील करते हैं कि मुंबई में जो हो रहा है, वह बहुत भयावह और दुखद है। इस पर 'रियलिस्टिक' फिल्म बना कर इसे भव्यता प्रदान न करें।' अंत में यह संक्षिप्त संदेश यह भी कहता है, 'भगवान हमारे देश को इन आतंकियों और ऐसे फिल्मवालों से बचाए।'वैसे निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा जाने क्या सोच कर महाराष्ट्र के अब कुर्सी खो चुके मुख्यमंत्री, विलास राव देशमुख और उनके अभिनेता बेटे, रितेश देशमुख के साथ ताज महल होटल में आतंकियों द्वारा मचाई तबाही देखने चले गए। मीडिया ने इसे उनका 'टैरर टूरिज्म' करार दिया!! क्यों...? क्योंकि रामू 'रियलिस्टिक' फिल्में बनाते हैं और उन्हें ताज में देखते ही अनुमान लगा लिया गया कि वे मुंबई पर हुए आतंकी हमले पर फिल्म बनाने की तैयारी में हैं। रामू और तत्कालीन मुख्यमंत्री दोनों की फजीहत हो गई। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यदि मुख्यमंत्री के साथ ताज में अमिताभ बच्चन होते, तो क्या यह नहीं कहा जाता कि वे मुंबई के जिम्मेदार और वरिष्ठ नागरिक हैं! मुंबई की स्थिति से वे चिंतित हैं, इसीलिए मुख्यमंत्री के साथ गए...? क्या रामू के मामले में निष्कर्ष निकालने में मीडिया ने जल्दबाजी की?रामू पर सवाल उठाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कठघरे में है। जिस तरह से उसने 'युद्ध' लाइव दिखाया, उससे आतंकियों और उनके आकाओं को पल-पल घटनास्थलों की जानकारी मिल रही थी! इससे पुलिस और सेना का काम मुश्किल हुआ। परंतु इस सीधे प्रसारण ने बॉलीवुड को भी संकट में डाला है। लाइव कवरेज के बाद बॉलीवुड के पास ज्यादा कुछ इस विषय पर कहने को नहीं रह गया है। दूसरे, जिस तरह से लोगों ने घर बैठे सब देखा, उससे देश के सैकड़ों दुश्मनों से अकेले निपट लेने वाले फिल्मी नायक की छवि ध्वस्त हो गई है। सबने देख लिया है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में हीरो, शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन जैसे बनते हैं। किसी फिल्मी खान, दत्त या रोशन की तरह नहीं। निश्चित मानिए कि यह घटना फिल्म बनाने वालों के सामने यह चुनौती पेश करेगी कि भविष्य में वह अपने ऐक्शन हीरो को किस तरह से जांबाज दिखाएं?

Tuesday, December 2, 2008

सलमान का चुटकुला


असली दुश्मनी यही है कि अपनी विफलता का गम कम हो और दुश्मन की सफलता का दर्द ज्यादा!! सलमान खान इन दिनों ऐसे ही दर्द भरे दौर से गुजर रहे हैं। इसीलिए वे ऐसी बातें भी कर रहे हैं कि सुनने वालों को लगे कि उन्हें दौरा तो नहीं पड़ गया? बीते शुक्रवार को रिलीज हुई निर्देशक सुभाष घई की 'युवराज' का टिकट खिडक़ी पर बुरा हाल किसी से छुपा नहीं है। सलमान फिल्म के मुख्य सितारे थे। ऐसे में उनको गमगीन होना ही चाहिए। परंतु सलमान को अपनी फिल्म को मिले बुरे रेस्पॉन्स से ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि उनके कट्टर दुश्मन, जॉन अब्राहम को लोगों ने 'दोस्ताना' में पसंद किया। जॉन ने फिल्म में जमकर जिस्म दिखाया है और देखने वाले उनसे खुश हैं। फिल्म की रिलीज के दौरान जॉन ने एक सिने-पत्रिका के लिए लगभग न्यूड फोटोसेशन भी कराया था। जो हिट रहा। 'दोस्ताना' में समलैंगिक रिश्तों को जिस हल्के-फुल्के ढंग से दिखाया गया है, उससे जॉन-अभिषेक समाज के ऐसे मर्दों में पहले से कहीं लोकप्रिय हो गए हैं। परंतु यह लोकप्रियता सलमान को नहीं पच रही।अभिषेक को लेकर तो सलमान कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि बच्चन परिवार से उनके सदा ठीकठाक रिश्ते रहे हैं और उनकी पूर्व पे्रमिका, ऐश्वर्य अब इसी घराने की बहू है। सो, सलमान के कहे का लोग जो मतलब न लें, वही कम होगा। अत: सलमान की सारी नाराजगी जॉन पर टूटी है। बॉलीवुड के अंदरूनी हलकों में 'दोस्ताना' की लोकप्रियता पर सलमान की टिप्पणी चर्चा में है। सलमान के अनुसार, जॉन ने इस फिल्म में जिस तरह से कपड़े उतार कर अद्र्धनग्न सीन दिए, वे नहीं देने चाहिए थे। ...मगर क्यों? सलमान का तर्क है कि जॉन को खयाल रखना चाहिए कि घर-परिवारों की मां-बेटियां-बहनें भी फिल्में देखने जाती हैं।अब सलमान के मुंह से यह सुनकर कौन नहीं हंसेगा? वाकई सलमान का यह खयाल इस साल का सबसे बड़ा चुटकुला है। मामला साफ-साफ सौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली के हज पर जाने का है!! सलमान जानबूझ कर यह भूलने की कोशिश में हैं कि बॉलीवुड में नायकों को परदे पर शर्ट उतारने का चस्का उन्होंने ही लगाया। वे आज भी बॉलीवुड के सबसे लोकप्रिय पोस्टर बॉय हैं। 'मुझसे शादी करोगी' और 'पार्टनर' जैसी फिल्मों के गानों में आज भी आप घर बैठे छोटे परदे के म्युजिक चैनलों पर सलमान को अपनी छाती फुलाते देख सकते हैं। सिक्स पैक ऐब्स का नशा भी सलमान की देन है। यह बात अलग है कि बदले जमाने के साथ परदे पर शर्ट उतारने की, हमारे नायकों की झिझक खत्म हो गई है। ऐसे में सलमान को टक्कर मिलना स्वाभाविक है। अक्षय कुमार, सैफ अली खान, ऋतिक रोशन और शाहरुख खान से लेकर आमिर खान तक बिना-शर्ट मैदान में हैं। लेकिन सलमान की जॉन से पुरानी दुश्मनी है और इस बार जॉन से टक्कर में सलमान पिट गए। अत: उनका खीझना स्वाभाविक है। सलमान की आदत है कि उनके दिल में जो रहता है, वह तत्काल जुबान पर ले आते हैं। सो, इस बार जो उनकी जुबान से जो निकला, वो किसी चुटकुले से कम नहीं!!