Friday, December 19, 2008

सवाल संवेदना पर

लंगूर अपनी पूंछ आखिर कब तक छुपा सकता है? मुंबई पर आतंकवादी हमले को चार हफ्ते गुजरे हैं और अभिनेतागिरी हो या नेतागिरी... असली रंग में आने लगी है। कुछ दिनों पहले बॉलीवुड के जो सुपर सितारे देश की चिंता कर रहे थे, सब कुछ भुला कर इन दिनों अपनी फिल्मों के जोरदार प्रमोशन में लगे हैं। किसी ने नहीं कहा कि वे अपनी फिल्म से होने वाली कमाई के दो दिन या एक दिन का पैसा शहीदों या हमलों में मारे गए लोगों के परिवार को अथवा सरकारी सहायता कोश में देंगे! जबकि उनकी फिल्मों पर पैसा छप्पर फाड़ कर बरस रहा है। शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' (बजट : 12 करोड़ रुपये) ने पहले वीकेंड में दुनिया भर में 60 करोड़ और देश में 25 करोड़ रुपये कमाए हैं। शाहरुख ने फिल्म में ऐक्टिंग के पैसे नहीं लिए हैं और वे इसके मुनाफे में हिस्सा बांट करेंगे। 25 दिसंबर को आ रही आमिर की 'गजनी' रिलीज होने से पहले ही करीब 90 करोड़ रुपये घरेलू और विश्व वितरण बाजार से कमा चुकी है। भरी जेब से दोनों सितारे दो-दो हाथ कर रहे हैं।समझा जा सकता है कि जनता क्यों बॉलीवुड को सीरियसली नहीं लेती!!'राम गोपाल वर्मा ने दो सरकार बनाई और एक गिराई' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। असल में बॉलीवुड में ही एक तबका है, जो बड़े सितारों/निर्देशकों की संवेदनाओं को नकली बता रहा है। पिछले दिनों जो तमाम स्टार आतंकी हमलों के विरुद्ध गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्तियां जला रहे थे, उनकी खबर लेते हुए कहा जा रहा है कि वह सिर्फ डर के कारण था। असल में पहली बार बॉलीवुड के स्टार समुदाय को महसूस हुआ कि आतंकी हमलों की जद में वे भी हैं। ताज और ओबेराय जैसी पांच सितारा होटलों में वही पार्टी करते हैं। अत: उनका डरना और सरकारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाना स्वाभाविक है। हालांकि बॉलीवुड का कोई सितारा इन हमलों में शिकार नहीं हुआ, परंतु अभिनेता आशीष चौधरी की बहन और जीजा इन हमलों में मारे गए थे।बात सिर्फ बॉलीवुड बिरादरी में पड़ी फूट की ही नहीं है। नेताओं ने भी अपनी राजनीति चमकाना शुरू कर दी है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके और इन दिनों अल्पसंख्य मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कह कर आग लगाई है कि महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, विजय सालस्कर और अशोक कामट की शहादत की जांच होनी चाहिए। वे आतंकवादियों की गोलियों से मारे या कुछ और कारण है? करकरे और उनके साथी एक ही गाड़ी में बैठ कर उस जगह क्यों गए, जहां उन्हें गोलियां लगी? अंतुले का इशारा इस ओर है कि करकरे जिस मालेगांव बम विस्फोट कांड की जांच कर रहे थे, उसमें गैर-मुसलिमों का नाम आया है। अंतुले के अनुसार,'जो लोग आतंकवाद की जड़ों तक पहुंचते हैं, वे अक्सर शिकार बन जाते हैं।' सवाल उठता है कि ऐसे वक्त जबकि पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है और दुनिया के हर कोने से उसे समर्थन हासिल है, यह सांप्रदायिक बात कह कर नेताजी क्या साबित करना चाहते हैं? नेताओं-अभिनेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्यों राजनीति और मनोरंजन के नाम पर जल्दी से जल्दी सब कुछ सामान्य बना कर लोगों के सोचने-विचारने की ताकत पर लगाम लगाने की कोशिशें होती है? अब इस सवाल के जवाब में नेताओं-अभिनेताओं की संवेदना पर सवाल न उठें, तो और क्या हो?

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