Friday, December 19, 2008

सवाल संवेदना पर

लंगूर अपनी पूंछ आखिर कब तक छुपा सकता है? मुंबई पर आतंकवादी हमले को चार हफ्ते गुजरे हैं और अभिनेतागिरी हो या नेतागिरी... असली रंग में आने लगी है। कुछ दिनों पहले बॉलीवुड के जो सुपर सितारे देश की चिंता कर रहे थे, सब कुछ भुला कर इन दिनों अपनी फिल्मों के जोरदार प्रमोशन में लगे हैं। किसी ने नहीं कहा कि वे अपनी फिल्म से होने वाली कमाई के दो दिन या एक दिन का पैसा शहीदों या हमलों में मारे गए लोगों के परिवार को अथवा सरकारी सहायता कोश में देंगे! जबकि उनकी फिल्मों पर पैसा छप्पर फाड़ कर बरस रहा है। शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' (बजट : 12 करोड़ रुपये) ने पहले वीकेंड में दुनिया भर में 60 करोड़ और देश में 25 करोड़ रुपये कमाए हैं। शाहरुख ने फिल्म में ऐक्टिंग के पैसे नहीं लिए हैं और वे इसके मुनाफे में हिस्सा बांट करेंगे। 25 दिसंबर को आ रही आमिर की 'गजनी' रिलीज होने से पहले ही करीब 90 करोड़ रुपये घरेलू और विश्व वितरण बाजार से कमा चुकी है। भरी जेब से दोनों सितारे दो-दो हाथ कर रहे हैं।समझा जा सकता है कि जनता क्यों बॉलीवुड को सीरियसली नहीं लेती!!'राम गोपाल वर्मा ने दो सरकार बनाई और एक गिराई' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। असल में बॉलीवुड में ही एक तबका है, जो बड़े सितारों/निर्देशकों की संवेदनाओं को नकली बता रहा है। पिछले दिनों जो तमाम स्टार आतंकी हमलों के विरुद्ध गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्तियां जला रहे थे, उनकी खबर लेते हुए कहा जा रहा है कि वह सिर्फ डर के कारण था। असल में पहली बार बॉलीवुड के स्टार समुदाय को महसूस हुआ कि आतंकी हमलों की जद में वे भी हैं। ताज और ओबेराय जैसी पांच सितारा होटलों में वही पार्टी करते हैं। अत: उनका डरना और सरकारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाना स्वाभाविक है। हालांकि बॉलीवुड का कोई सितारा इन हमलों में शिकार नहीं हुआ, परंतु अभिनेता आशीष चौधरी की बहन और जीजा इन हमलों में मारे गए थे।बात सिर्फ बॉलीवुड बिरादरी में पड़ी फूट की ही नहीं है। नेताओं ने भी अपनी राजनीति चमकाना शुरू कर दी है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके और इन दिनों अल्पसंख्य मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कह कर आग लगाई है कि महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, विजय सालस्कर और अशोक कामट की शहादत की जांच होनी चाहिए। वे आतंकवादियों की गोलियों से मारे या कुछ और कारण है? करकरे और उनके साथी एक ही गाड़ी में बैठ कर उस जगह क्यों गए, जहां उन्हें गोलियां लगी? अंतुले का इशारा इस ओर है कि करकरे जिस मालेगांव बम विस्फोट कांड की जांच कर रहे थे, उसमें गैर-मुसलिमों का नाम आया है। अंतुले के अनुसार,'जो लोग आतंकवाद की जड़ों तक पहुंचते हैं, वे अक्सर शिकार बन जाते हैं।' सवाल उठता है कि ऐसे वक्त जबकि पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ खड़ा है और दुनिया के हर कोने से उसे समर्थन हासिल है, यह सांप्रदायिक बात कह कर नेताजी क्या साबित करना चाहते हैं? नेताओं-अभिनेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। क्यों राजनीति और मनोरंजन के नाम पर जल्दी से जल्दी सब कुछ सामान्य बना कर लोगों के सोचने-विचारने की ताकत पर लगाम लगाने की कोशिशें होती है? अब इस सवाल के जवाब में नेताओं-अभिनेताओं की संवेदना पर सवाल न उठें, तो और क्या हो?

Wednesday, December 17, 2008

कौन करे समीक्षक की परवाह?

यह बात लोगों को आकर्षित करती है कि आप फिल्म समीक्षक हैं। लोग समझते है कि आपके मजे हैं। मुफ्त फिल्में देखते हैं। समीक्षा में ज्यादा स्टार पाने के लिए सितारे और निर्देशक आपकी चिरौरी करते हैं। प्रोड्यूसर 'गिफ्ट' देता है। वगैरह वगैरह। परंतु हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। अधिकतर अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर फिल्म समीक्षा ऐसे अंदाज में होती है, मानो इसके लिए किसी योग्यता की ही जरूरत नहीं। कभी समीक्षक के शब्दों की गरिमा होती थी। लेकिन अब सिनेमा हॉल से निकलता दर्शक जो दो शब्द कैमरे के सामने कह दे, वही सच है। इस परिदृश्य में कौन समीक्षक की परवाह करे? मुंबई की घटना है। एक पीआरओ ने अपनी फिल्म के पे्रस शो में से एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक को भगा दिया। समीक्षक देर से प्रिव्यू-थियेटर में पहुंचा था। जहां उसकी सीट हमेशा तय होती है। उस दिन समीक्षक देर से आया। सीट पर कोई और था। समीक्षक की जिद थी, वह उसी सीट पर बैठेगा। पीआरओ अपनी पुरानी फिल्मों की खिंचाई पर पहले ही समीक्षक से चिढ़ा था। उसने समीक्षक को सार्वजनिक रूप से अपमानित करके भगा दिया कि उसे मालूम है, वह इस फिल्म के बारे मे बुरा ही लिखेगा!! वहां मौजूद बाकी समीक्षक भीगी बिल्ली बने, गरजते पीआरओ को देखते रहते। असल में, प्रेस शो अब वह अवसर है, जिसे पीआरओ प्रोड्यूसर के पैसों से समोसे, सैंडविच, वेफर, एक मिठाई और छोटे वाले कोल्ड ड्रिंक से सजाता है। समीक्षक फिल्म देखता है और इंटरवेल में 'अल्पाहार' करते हुए फिल्म की नुक्ताचीनी करता है। पे्रस शो में फिल्म देखने से समीक्षक को सिर्फ इतना लाभ होता है कि हॉल में खर्च होने वाले उसके सौ-सवा सौ रुपये बच जाते हैं!वास्तव में, सिनेमा के धंधे में अब फिल्म समीक्षक सबसे गौण हो गया है। प्रोड्यूसर को रिलीज से पहले पब्लिसिटी चाहिए होती है। वह पहले से टीवी चैनलों के लिए 'बाइट्स' तथा प्रिंट के लिए 'स्टोरीज' तैयार रखता है। सिने-मीडिया को रेडीमेड सामग्री मिलती है और इस समाग्री से फिल्म पत्रकारिता का निर्वाह होता है। फिल्म का डायरेक्टर और ऐक्टर रिलीज से पहले एकाध घंटे के लिए मीडिया को उपलब्ध होते हैं। यदि फिल्म का हीरो कोई सितारा हुआ, तो वह कुछ मिनटों के लिए मिलता है। हालांकि सितारा अगर प्रोड्यूसर भी हुआ, तो मीडिया को पर्याप्त एंटरटेन करता है। वह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देता है, तो चैनल पर 'स्पेशल और फेवरेबल' कवरेज भी मांगता हैं। चैनलों की मजबूरी है। वे सितारों के आगे झुकते हैं।वैसे अब फिल्म के प्रिव्यू की अनिवार्यता भी खत्म हो रही है। भट्ट कैंप ने तो लंबा अर्सा हुआ, मीडिया को फिल्म दिखाना बंद कर दिया। पे्रस प्रीव्यू अब पीआर कंपनियों के भरोसे चलते हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियां नई-नवेली युवतियों के भरोसे चलती हैं। जिन्हें न मीडिया की समझ होती है और न समीक्षकों का पता। ज्यादातर पीआर कंपनियां प्रेस शो के नाम पर 'फस्ट डे फस्र्ट शो' के टिकट समीक्षकों को उपलब्ध कराती हैं। इधर, फिल्म के प्रीमियर का चलन भी कम हो चला है। किसी फिल्म का प्रीमियर होता भी है, तो सितारों, उनके मेहमानों और फिल्म से जुड़े लोगों के लिए। सीटें बची, तो समीक्षक को एकाध घंटे पहले निमंत्रण मिलता है। विडंबना देखिए कि जो समीक्षक फिल्म के बारे में घंटों बोलते और कई कई पन्ने लिखते हैं, खुद अपने हाल पर न कभी उनकी जुबान खुलती है और न कलम चलती है।

मंत्र सिर्फ एक है

बॉलीवुड परेशान है कि लोग फिल्म देखने नहीं निकल रहे। पिछले कुछ सालों में मॉल और मल्टीप्लेक्स कल्चर ने लोगों में 'आउटिंग' का आकर्षण पैदा किया था। लेकिन अब वहां पर बमों के डर ने लोगों को घर में रहने को मजबूर कर दिया है। देश के तमाम हिस्सों में 'बम' का डर जनता के अचेतन मन में फिट हो चुका है!! मायानगरी मुंबई का हाल यह है कि लोकल टे्रनों में और सडक़ों पर अब सुबह के वक्त 26/11 से पहले जैसी भीड़ नहीं दिखती। दिन भर वातानुकूलित मॉल में विंडो शॉपिंग करने का उत्साह लोगों में कम हो गया है। मल्टीप्लेक्स खाली हैं। बिजली-पानी का खर्च नहीं निकल रहा। तय हो गया है कि मॉलों में खुली दुकानों का किराया नए साल में नहीं बढ़ेगा। मल्टीप्लेक्स भी सस्ते टिकटों की योजना बना रहे हैं। परंतु इस आलम के लिए बमों के अलावा एक और कारण जिम्मेदार है। आम आदमी की जेब का खस्ता हाल। महंगा दाल-दाना, दूध-सब्जी...। मनोरंजन जरूरी है या किचन, बच्चों की पढ़ाई, घर का बिजली-पानी-पेट्रोल? आम आदमी के पास जवाब है। परंतु बॉलीवुड को इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि आखिर कैसे दर्शकों को सिनेमाघरों में लाया जाए? बीते हफ्तों में आई दोस्ताना, दस्विदानिया, युवराज, ओय लकी लकी ओय, सॉरी भाई, मीरा बाई नॉट आउट, ओ माई गॉड, दिल कबड्डी, महारथी और गुमनाम-द मिस्ट्री का बुरा हाल है। उधर, फिल्मों की पायरेसी ने बॉलीवुड की कमर तोड़ रखी है। 'रब ने बना दी जोड़ी' की रिलीज से पहले ही लोग पायरेटेड सीडी बेचने वालों से पूछ रहे थे, 'क्यों भाई, आ गई क्या...?'वास्तव में बॉलीवुड के सवाल का एक ही जवाब है। फिल्म अच्छी है, तो लोग सिनेमाघरों में जरूर जाएंगे। फिर चाहे आंधी आए या तूफान। सिनेमा के लिए दर्शक जुटाने का इससे बढ़ कर कोई मंत्र नहीं। जब 'रंग दे बसंती' आई थी, तो लोगों ने एक-दूसरे को इस बात के लिए पे्ररित किया था कि इसे हॉल में ही देखें। पायरेटेड सीडी पर नहीं। ऐसा ही हुआ भी। सच तो यह है कि बाजार के चाहे सारे काम जुगाड़ से संवर जाएं, परंतु दर्शकों को जुगाड़ से सिनेमाघरों में नहीं खींचा जा सकता। फिलहाल उम्मीदें शाहरुख की 'रब ने बना दी जोड़ी' से हैं। आने वाले दिनों में 'गजनी' और 'चांदनी चौक टू चाइना' पर भी नजरें हैं। लेकिन शर्त एक ही कि फिल्म अच्छी होगी, तो सिनेमाघर भरेंगे। वर्ना ना देखने के बहाने सौ।असल में बॉलीवुड के पास तात्कालिक या दूरगामी संकटों से निपटने की कोई योजना नहीं होती। जरा हॉलीवुड को देखिए। दुनिया भर के बाजारों में पिछले दिनों आई मंदी के कारण हॉलीवुड के बड़े स्टूडियोज को भारी नुकसान हुआ है। अब ये स्टूडियो साल 2009 और 2010 के लिए ऐसी कहानियों की तलाश में जुट गए हैं, जिनमें 'युनिवर्सल अपील' हो। उनके सामने तस्वीर साफ है कि कैसी फिल्में बनानी है? वे दुनिया के हर कोने में सिनेमा के बाजार से धन खींचेंगे। उनका निशाना बॉलीवुड भी होगा। इससे मुकाबले के लिए क्या बॉलीवुड ने कुछ सोचा है? बिल्कुल नहीं। यह साल बॉलीवुड के लिए अच्छा नहीं रहा। बड़े बैनरों-सितारों की फिल्में ध्वस्त हुईं। अब जबकि हॉलीवुड अपनी रणनीति अगले 2 सालों के लिए बना चुका है और अच्छी कहानियों की तलाश में है, तो बॉलीवुड को भी गंभीर होना चाहिए। सिर्फ नकल से कब तक काम चलेगा?

Thursday, December 11, 2008

संजय का संसद स्वप्न

देश में सडक़ से संसद तक पहुंचने का रास्ता आसान है या फिर जेल से संसद तक का सफर...? चर्चा करके देखिए, इस सवाल का जवाब कमोबेश समान ही होगा। फिल्म अभिनेता संजय दत्त इन दिनों संसद में कुर्सी संभालने पर विचार कर रहे हैं। देश में ऐसे कई सांसद-विधायक हैं, जो अपना दामन पाक-साफ साबित करने की लड़ाई अदालतों में लड़ रहे हैं। संजय दत्त को 1993 के हुए मुंबई बम धमाकों के दौरान अवैध ढंग से हथियार रखने के मामले में दोषी पाया गया। टाडा कोर्ट ने पिछले साल उन्हें 6 वर्ष कैद की सजा सुनाई थी। संजय ने इन निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है और इन दिनों जमानत पर बाहर हैं। इस मामले में जो भी फैसला आए, वे अगले साल अपै्रल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव तो लड़ ही सकते हैं। असल में, संजय दत्त से ज्यादा उनकी पत्नी मान्यता चाहती हैं कि उनके पति चुनाव लड़ें। मान्यता का विश्वास है कि संजू देश के किसी भी कोने से चुनाव लड़ें। वे जीतेंगे अवश्य। संजय को किसी पार्टी की भी जरूरत नहीं।पिछले कुछ महीनों में मान्यता बॉलीवुड की 'हाई-प्रोफाइल वाइफÓ के रूप में उभरी हैं। इस साल फरवरी में संजय से विवाह से पहले उनकी कोई पहचान नहीं थी। बॉलीवुड में उन्हें कुछ लोग एक स्ट्रगलर के रूप में जरूर जानते थे। खैर, मान्यता अब संजय की पत्नी ही नहीं, मित्र और मंत्री भी हैं। मान्यता के साथ संजय की शादी पर कई सवाल उठे। परंतु अब सब ठीक है। संजय से विवाह के बाद मान्यता एक समाजिक कार्यकता के रूप में अपनी छवि बनाने में जुटी हैं। उनकी अपनी निजी संस्था है, 'डैमेज'। जो मुंबई में दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले गरीबों की आर्थिक और अन्य मदद करती है। इस संस्था के लिए पैसा खुद संजय दत्त देते हैं। वो जो भी फिल्म साइन करते हैं, उसकी फीस में से 5 से 7 लाख रुपया, मान्यता की संस्था को जाता है। पिछले दिनों मुंबई पर आतंकवादी हमले के विरुद्ध बॉलीवुड का जो 'मोमबत्ती मूवमेंट' हुआ, उसे आयोजित करने में मान्यता का बड़ा हाथ था। लोग यह सोचने लगे हैं कि क्या मान्यता संजय की मां, नर्गिस दत्त के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश कर रही हैं?मान्यता का दावा है कि संजय दत्त बहुत अच्छे नेता साबित होंगे क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ देखा है। वे दूसरों का दुख-दर्द समझते हैं। संजय नर्म दिल इनसान हैं। सच तो यह है कि संजय अब राजनीति में आ चुके होते। उनके पिता, सुनील दत्त के निधन के बाद जब कांगे्रस ने उनके राजनीतिक वारिस की खोज शुरू की, तो पहला नाम संजय का ही था। परंतु संजू बाबा के विवादास्पद जीवन के कारण उनकी बहन प्रिया को सुनील दत्त की गद्दी दी गई। प्रिया ने अपने काम से इस फैसले को सही साबित भी किया। संजय अपनी दोनों बहनों, प्रिया और नम्रता से बहुत प्यार करते हैं। अत: उन्हें इस बात की टीस नहीं कि पिता के राजनीतिक वारिस वे नहीं बन सके। परंतु राजनीतिक चेतना उन्हें खून में मिली है। संजय कहते हैं कि मैं पहले भारतीय हूं और उसके बाद अभिनेता। जब मुंबई पर हुए आतंकी हमले की खबर उन्हें मिली, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, 'काश! मैं कमांडो होता...।' अपने अगले जन्मदिन पर वे 50 साल के हो जाएंगे। अब देखना होगा कि संजय सक्रिय राजनीति में आने की घोषणा कब तक करते हैं?

Wednesday, December 10, 2008

जो अपराधी नहीं होंगे...


अमिताभ बच्चन जैसे सुपर सितारे को भी सरकारी तथा निजी सुरक्षा गार्डों से घिरे होने बावजूद जेब में पिस्तौल रखनी पड़ती है!! यह बात सामने नहीं आती, अगर मुंबई हवाई अड्डे पर उनकी पिस्तौल और उसके लाइसेंस की जानकारियां आपस में मेल खा जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बात खुल गई। साफ है कि देश में आज आम हो या खास, हर कोई अपनी जान की सुरक्षा के लिए चिंतित है? दिल्ली, जयपुर, मुंबई से लेकर गुवाहाटी और बंगलूरू तक जनता सरकार से पूछ रही है कि क्या सिर्फ नेताओं को सुरक्षा की जरूरत है? जनता का क्या... जो आतंकियों के बम-बंदूकों में मरी जा रही है। सो, अब चर्चा चल पड़ी है कि क्या लोगों को पिस्तौल, बंदूक जैसे हथियारों के लाइसेंस देने के नियमों को ढीला करने का वक्त आ गया? किसी समय अंडरवल्र्ड से संबंध और अवैध हथियार रखने के मुकदमों के साये में जी रहे संजय दत्त इसके पक्ष में हैं। एक टीवी चैनल पर उन्होंने कहा है कि मैं अपने कुछ दोस्तों से मुंबई पर आतंकी हमले के बाद बात कर रहा था। सब सहमत थे कि यदि उस दिन ताज या ओबेराय में दस लोगों के पास भी निजी सुरक्षा के लिए पिस्तौल होती, तो तस्वीर बदल भी सकती थी।वाकई। परंतु किसी भी आम-ओ-खास को निजी हथियार का लाइसेंस आसानी से देने का मसला काफी टेढ़ा है। समाज में गुस्सा बढ़ रहा है। व्यक्ति के घर-दफ्तर में तनाव बढ़ गया है। गला काट प्रतिद्ंवद्विता के दौर में एक-दूसरे की असहमति सहने की कूवत कम हो रही है। क्षमा का भाव लगभग समाप्त है। ऐसे में हमारे समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले फिल्मी हीरो या तो पिस्तौल लेकर चल रहे हैं या फिर उसे आसानी से मुहैया कराने की वकालत कर रहे हैं!! बंदूक और पिस्तौल का भी नशा होता है। नशा व्यक्ति को अनियंत्रित करता है। वैसे, इससे बेपरवाह चंबल में स्थित शिवपुरी शहर के प्रशासन ने इस साल एक अनोखी योजना लागू की। इलाके के जो पुरुष नसबंदी कराएंगे, उन्हें बंदूक के लाइसेंस जल्दी मिल जाएंगे!! परिणाम यह कि योजना से पहले बीते एक बरस में मात्र 8 पुरुषों ने नसबंदी कराई थी, योजना के बाद अब तक करीब 250 मर्द ऐसा करा चुके हैं। क्या यह योजना देश में जल्दी बंदूक का लाइसेंस चाहने वालों के लिए लागू की जा सकती है? निश्चित रूप से फिल्मी सितारों पर भी यह बात लागू होगी...!!इसी साल सोहा अली खान के बारे में खबर थी कि गुडग़ांव प्रशासन ने उन्हें 18 की उम्र में बंदूक का लाइसेंस दिया था। जबकि कानून में 21 से पहले ऐसे हथियारों के लाइसेंस की मनाही है। बात हाई-प्रोफाइल थी, सो बिना तूल के मामला निपटा लिया गया। देश में रईसों के बिगडैलों की खबरें कम नहीं आतीं। वैसे देखा यही गया है कि फिल्मी सितारे सफलता का नशा संभाल नहीं पाते। उस पर यदि वे खुलेआम पिस्तौल लेकर घूमेंगे और उनसे युवा प्रभावित होंगे, तो समाज का क्या होगा? वास्तव में, नेता-अभिनेता तो सुरक्षा का सामान साथ लेकर चल सकते हैं। परंतु आम आदमी क्या करे जो सडक़ पर खुला चलता है। हिंदी की वर्तमान कविता के प्रमुख हस्ताक्षर राजेश जोशी ने लिखा है-सबसे बड़ा अपराध है इस समय/निहत्थे और निरपराध होना/जो अपराधी नहीं होंगे/मारे जाएंगे...।बीती सदी के आखिरी वर्षों में लिखी गई इन पंक्तियों में आम आदमी की जो लाचारी झलकती थी। वही अब भी झलक रही है।

Thursday, December 4, 2008

बचाएं इस रियेलिटी से


बीते हफ्ते मुंबई को करीब 60 घंटों तक बंधक बनाए रखने वाली आतंकी दुर्घटना को क्या आप बड़े परदे पर देखना चाहेंगे? यह सवाल खुद के पूछने का है। मुंबई में जो कुछ हुआ, लोग अपने ढंग से उसकी व्याख्या कर रहे हैं। कोई देश/राजनीति/सुरक्षा तंत्र के लिए इसे शर्मनाक बता रहा है, तो कोई इसे आतंकियों को पोसने वाले पड़ोसी पाकिस्तान को करारा जवाब देने का मौका। किसी के लिए यह पूरा घटनाक्रम राजनीतिक रोटियां सेंकने वाला तंदूर है, तो किसी के लिए सबक लेने का पाठ्यक्रम। मुंबई की गोद में बैठे बॉलीवुड के लिए यह घटना उसे उधेड़बुन में डालने वाली है। कोई और मौका होता, तो इंडस्ट्री के तमाम 'भट्ट' अब तक इस विषय पर तत्काल 'रियलिस्टिक' फिल्म बनाने की घोषणा कर देते। मुंबई के 1993 में हुए बम धमाके, उसके बाद दंगे, मुंबई का अंडरवल्र्ड, मुंबई पर बारिश का बेरहम कहर, मुंबई की लोकल टे्रनों में बम ब्लास्ट... इन सब पर फिल्म बनाने से खूब पब्लिसिटी मिलती है। परंतु इस बार मामला काफी संवेदनशील है और कोई इस पर फिल्म बनाने की बात करके लोगों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता। इससे पहले कि कोई फिल्मकार एक शब्द कहता, एक एसएमएस लोगों के पास पहुंच गया। जो कह रहा है, 'हम महेश भट्ट, राम गोपाल वर्मा, संजय गुप्ता, राहुल ढोलकिया और अपूर्व लखिया जैसों से पूरी विनम्रता से अपील करते हैं कि मुंबई में जो हो रहा है, वह बहुत भयावह और दुखद है। इस पर 'रियलिस्टिक' फिल्म बना कर इसे भव्यता प्रदान न करें।' अंत में यह संक्षिप्त संदेश यह भी कहता है, 'भगवान हमारे देश को इन आतंकियों और ऐसे फिल्मवालों से बचाए।'वैसे निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा जाने क्या सोच कर महाराष्ट्र के अब कुर्सी खो चुके मुख्यमंत्री, विलास राव देशमुख और उनके अभिनेता बेटे, रितेश देशमुख के साथ ताज महल होटल में आतंकियों द्वारा मचाई तबाही देखने चले गए। मीडिया ने इसे उनका 'टैरर टूरिज्म' करार दिया!! क्यों...? क्योंकि रामू 'रियलिस्टिक' फिल्में बनाते हैं और उन्हें ताज में देखते ही अनुमान लगा लिया गया कि वे मुंबई पर हुए आतंकी हमले पर फिल्म बनाने की तैयारी में हैं। रामू और तत्कालीन मुख्यमंत्री दोनों की फजीहत हो गई। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यदि मुख्यमंत्री के साथ ताज में अमिताभ बच्चन होते, तो क्या यह नहीं कहा जाता कि वे मुंबई के जिम्मेदार और वरिष्ठ नागरिक हैं! मुंबई की स्थिति से वे चिंतित हैं, इसीलिए मुख्यमंत्री के साथ गए...? क्या रामू के मामले में निष्कर्ष निकालने में मीडिया ने जल्दबाजी की?रामू पर सवाल उठाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कठघरे में है। जिस तरह से उसने 'युद्ध' लाइव दिखाया, उससे आतंकियों और उनके आकाओं को पल-पल घटनास्थलों की जानकारी मिल रही थी! इससे पुलिस और सेना का काम मुश्किल हुआ। परंतु इस सीधे प्रसारण ने बॉलीवुड को भी संकट में डाला है। लाइव कवरेज के बाद बॉलीवुड के पास ज्यादा कुछ इस विषय पर कहने को नहीं रह गया है। दूसरे, जिस तरह से लोगों ने घर बैठे सब देखा, उससे देश के सैकड़ों दुश्मनों से अकेले निपट लेने वाले फिल्मी नायक की छवि ध्वस्त हो गई है। सबने देख लिया है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में हीरो, शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन जैसे बनते हैं। किसी फिल्मी खान, दत्त या रोशन की तरह नहीं। निश्चित मानिए कि यह घटना फिल्म बनाने वालों के सामने यह चुनौती पेश करेगी कि भविष्य में वह अपने ऐक्शन हीरो को किस तरह से जांबाज दिखाएं?

Tuesday, December 2, 2008

सलमान का चुटकुला


असली दुश्मनी यही है कि अपनी विफलता का गम कम हो और दुश्मन की सफलता का दर्द ज्यादा!! सलमान खान इन दिनों ऐसे ही दर्द भरे दौर से गुजर रहे हैं। इसीलिए वे ऐसी बातें भी कर रहे हैं कि सुनने वालों को लगे कि उन्हें दौरा तो नहीं पड़ गया? बीते शुक्रवार को रिलीज हुई निर्देशक सुभाष घई की 'युवराज' का टिकट खिडक़ी पर बुरा हाल किसी से छुपा नहीं है। सलमान फिल्म के मुख्य सितारे थे। ऐसे में उनको गमगीन होना ही चाहिए। परंतु सलमान को अपनी फिल्म को मिले बुरे रेस्पॉन्स से ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि उनके कट्टर दुश्मन, जॉन अब्राहम को लोगों ने 'दोस्ताना' में पसंद किया। जॉन ने फिल्म में जमकर जिस्म दिखाया है और देखने वाले उनसे खुश हैं। फिल्म की रिलीज के दौरान जॉन ने एक सिने-पत्रिका के लिए लगभग न्यूड फोटोसेशन भी कराया था। जो हिट रहा। 'दोस्ताना' में समलैंगिक रिश्तों को जिस हल्के-फुल्के ढंग से दिखाया गया है, उससे जॉन-अभिषेक समाज के ऐसे मर्दों में पहले से कहीं लोकप्रिय हो गए हैं। परंतु यह लोकप्रियता सलमान को नहीं पच रही।अभिषेक को लेकर तो सलमान कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि बच्चन परिवार से उनके सदा ठीकठाक रिश्ते रहे हैं और उनकी पूर्व पे्रमिका, ऐश्वर्य अब इसी घराने की बहू है। सो, सलमान के कहे का लोग जो मतलब न लें, वही कम होगा। अत: सलमान की सारी नाराजगी जॉन पर टूटी है। बॉलीवुड के अंदरूनी हलकों में 'दोस्ताना' की लोकप्रियता पर सलमान की टिप्पणी चर्चा में है। सलमान के अनुसार, जॉन ने इस फिल्म में जिस तरह से कपड़े उतार कर अद्र्धनग्न सीन दिए, वे नहीं देने चाहिए थे। ...मगर क्यों? सलमान का तर्क है कि जॉन को खयाल रखना चाहिए कि घर-परिवारों की मां-बेटियां-बहनें भी फिल्में देखने जाती हैं।अब सलमान के मुंह से यह सुनकर कौन नहीं हंसेगा? वाकई सलमान का यह खयाल इस साल का सबसे बड़ा चुटकुला है। मामला साफ-साफ सौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली के हज पर जाने का है!! सलमान जानबूझ कर यह भूलने की कोशिश में हैं कि बॉलीवुड में नायकों को परदे पर शर्ट उतारने का चस्का उन्होंने ही लगाया। वे आज भी बॉलीवुड के सबसे लोकप्रिय पोस्टर बॉय हैं। 'मुझसे शादी करोगी' और 'पार्टनर' जैसी फिल्मों के गानों में आज भी आप घर बैठे छोटे परदे के म्युजिक चैनलों पर सलमान को अपनी छाती फुलाते देख सकते हैं। सिक्स पैक ऐब्स का नशा भी सलमान की देन है। यह बात अलग है कि बदले जमाने के साथ परदे पर शर्ट उतारने की, हमारे नायकों की झिझक खत्म हो गई है। ऐसे में सलमान को टक्कर मिलना स्वाभाविक है। अक्षय कुमार, सैफ अली खान, ऋतिक रोशन और शाहरुख खान से लेकर आमिर खान तक बिना-शर्ट मैदान में हैं। लेकिन सलमान की जॉन से पुरानी दुश्मनी है और इस बार जॉन से टक्कर में सलमान पिट गए। अत: उनका खीझना स्वाभाविक है। सलमान की आदत है कि उनके दिल में जो रहता है, वह तत्काल जुबान पर ले आते हैं। सो, इस बार जो उनकी जुबान से जो निकला, वो किसी चुटकुले से कम नहीं!!

Wednesday, November 26, 2008

चोरी, हेराफेरी और सीनाजोरी


2 ताजातरीन मामलों पर बॉलीवुड की नजरें हैं। पिछले साल की हिट 'ओम शांति ओम' और अगले हफ्ते रिलीज होने वाली 'ओए लकी, लकी ओए'। दोनों फिल्में चोरी, हेराफेरी और सीनाजोरी के मामलों से दो-चार हो रही हैं। शाहरुख खान के प्रोडक्शन करियर में सफलता का कोहिनूर साबित हुई 'ओम शांति ओम' की चमक धीमे-धीमे फीकी पड़ी है। पहले तो फिल्म में सीनियर ऐक्टर मनोज कुमार के अपमान के मामले ने कई लोगों को नाराज किया और फिर फिल्म पर चोरी की कहानी होने के आरोप लगे। 'कारपोरेट' और 'फैशन' लिखने वाले अजय मोंगा ने 'ओएसओ' की कहानी पर अपना दावा पेश किया है उनके मुताबिक यह फिल्म उनकी लिखी स्क्रिप्ट 'द साइलेंट मूवी' पर बनाई गई है। लेखक ने मुंबई में फिल्मी लेखकों के विवादों को सुलझाने वाली संस्था फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में यह दावा पेश किया था। न्याय नहीं मिला, तो लेखक को अदालत की शरण लेना पड़ी। मामला मुंबई हाईकोर्ट में है। अत: लेखक संगठन की आंखें भी खुली है। वह गंभीरतापूर्वक मोंगा की स्क्रिप्ट को पढ़ कर मान रहा है कि निर्देशक फराह खान की फिल्म का कम से कम पहला हिस्सा तो बहुत कुछ 'द साइलेंट मूवी' की नकल है। तय है कि अदालत में लेखक संगठन के प्रतिनिधियों की गवाही से किंग खान के प्रोडक्शन हाउस, रेड चिलीज को मिर्ची लग सकती है!! संभव है कि अब ऊंट पहाड़ के नीचे आए और जो शाहरुख-फराह मोंगा को मुलाकात के वक्त देने से कतरा रहे थे, वे अदालत के बाहर मोटी 'डील' का प्रस्ताव रखें। संगीत निर्देशक राम संपत की बनाई कुछ सेकेंड की धुन चुराने के चक्कर में फिल्म 'के्रजी4' के निर्माता राकेश रोशन को अदालत की चौखट पर खड़े-खड़े करीब 2 करोड़ रुपये देने पड़े थे। ऐसे में यहां तो मामला उस फिल्म की स्क्रिप्ट उड़ा लेने का है, जिसकी कमाई का ठीक-ठीक हिसाब शायद शाहरुख भी नहीं रख पाए हों।असल में हिंदी सिनेमा की कॉमर्शियल दुनिया ऐसी काजल की कोठरी बन चुकी है, जहां किसी भी फिल्म का बिना दागदार हुए निकलना मुश्किल है। इधर फिल्म का नाम लीजिए, उधर लोग बता देंगे कि यह आइडिया किस देसी-विदेशी फिल्म से लिया गया है। यदि ऐसा नहीं, तो कोई गुमनाम लेखक निकल आएगा, कहानी पर दावा करता हुआ। हालिया रिलीज 'दोस्ताना' (हॉलीवुड की पिछले साल रिलीज हुई फिल्म 'आई नाऊ प्रोनाउंस यू चक ऐंड लैरी') हो या फिर पिछले कुछ सालों में आई दर्जनों फिल्में। अगले हफ्ते सिनेमा घरों में आने वाली निर्देशक दिबाकर बनर्जी की 'ओए लकी...' भी झटके खा रही है। दिल्ली जेल में बंद सुपर चोर कहे जाने वाले देवेंदर सिंह उर्फ बंटी ने फिल्म की प्रोड्यूसर कंपनी यूटीवी को पत्र लिख कर दावा किया है कि यह फिल्म उसकी जिंदगी पर आधारित है और उसे इसके मुनाफे में हिस्सा चाहिए। सुपर चोर मामले को अदालत में ले जाने की भी धमकी दे रहा है। रिलीज से पहले कोई निर्माता अदालत का दरवाजा नहीं देखना चाहता। उल्लेखनीय है कि सुपर चोर के बारे में विख्यात है कि वह सिर्फ शौकिया चोरी करती है और उसे इसका नशा है। चोरी के लिए वह ऐसे-ऐसे आइडिये लाता है कि पुलिस भी उसकी कायल है। लेकिन निश्चित रूप से बॉलीवुड के कथा-चोरों के बारे में यह बात कोई दावे से नहीं कह सकता। जो चोरी और हेराफेरी तो करते हैं... साथ ही सीनाजोरी भी।

Saturday, September 13, 2008

वक्त वक्त की बात


किसी जमाने में फिल्म समीक्षकों और फिल्म मीडिया को दुश्मन की निगाहों से देखने वाले प्रोड्यूसर अब उनकी तारीफ को अपने लिए मैडल की तरह लिए घूम रहे हैं। मामला है एक्सल एंटरटनेमेंट नाम की कंपनी वालों का, जिन्होंने दो साल पहले शाहरुख खान को लेकर 'डॉन' बनाई थी। उस वक्त समीक्षकों ने 1978 की 'डॉन' (अमिताभ बच्चन) की इस रीमेक की धज्जियां उड़ा दी थीं। तब प्रोड्यूसरों तथा डायरेक्टर फरहान अख्तर समेत शाहरुख के चेहरे से रौनक गायब हो गई थी। चारों ओर होने वाली आलोचनाओं से तिलमिलाए प्रोड्यूसरों-डायरेक्टरों और ऐक्टर ने मिल कर तत्काल मीडिया में एक बड़ा-सा, बहुचर्चित विज्ञापन रिलीज किया था। जिसकी टैग लाइन थी, 'डॉन के क्रिटिक्स की सबसे बड़ी गलती ये है कि वे डॉन के क्रिटिक हैं।' परंतु अब वक्त बदल गया है। इसी प्रोड्क्शन हाउस की फिल्म 'रॉक ऑन' कुछ दिनों पहले रिलीज हुई है और महानगरीय संस्कृति में पले-बढ़े चुनिंदा समीक्षकों ने इसकी तारीफ में कुछ पंक्तियां लिख दी हैं। परिणाम यह कि इन पंक्तियों को प्रोड्यूसरों ने फिल्म की रिलीज के बाद के विज्ञापनों में इस्तेमाल किया है, ताकि दर्शकों को आकर्षित कर सकें। जबकि हकीकत यह है कि फिल्म किसी लिहाज से देखने काबिल नहीं है। फिल्म में न तो ढंग का संगीत है और न ही ढंग की कहानी। परंतु 'मैट्रो' के चुनिंदा समीक्षकों की तारीफ को आधार बना कर प्रोड्यूसर दुनिया को बताने की कोशिश में लगे हैं कि वे एक महान फिल्म दर्शकों के बीच लाए हैं।वाकई समीक्षकों के बारे में राय बदलते फिल्म वालों को वक्त नहीं लगता। उनका पैमाना बहुत सरल है। यदि उनकी फिल्म को अच्छा लिख दिया, तो समीक्षक अच्छे, बुरा लिखा तो समीक्षक बुरे। हालांकि कुछ निर्माता-निर्देशक अपने को इन अच्छी-बुरी समीक्षकाओं से ऊपर उठा हुआ मानते हैं, परंतु इसमें संदेह नहीं कि समीक्षकों का भूत उन्हें अकेले में डराता है। उन्हें भले ही सैकड़ों लोग कहें कि उन्होंने बढिय़ा फिल्म बनाई है, परंतु वे एक समीक्षक की राय सुनने को उत्सुक रहते हैं। क्या उसे फिल्म पसंद आई...? यदि नहीं, तो उनका चैन खोते वक्त नहीं लगता। 'रॉक ऑन' से बढिय़ा उदाहरण नहीं हो सकता। जबकि दो साल पहले इन्हीं लोगों के लिए समीक्षक 'तुच्छ' थे। परंतु अब वे महत्वपूर्ण हो गए हैं और उनकी लिखी पंक्तियां फिल्म के पोस्टरों पर छापी जा रही हैं।असल में अमिताभ बच्चन हों, चोपड़ा कैंप हो, राम गोपाल वर्मा हों या फिर कोई शर्मा ही क्यों नहीं..., सबके लिए समीक्षकों की राय महत्व रखती है और वे सिर्फ तारीफ की उम्मीद करते हैं। 'रॉक ऑन' का ही अगला मामला यह है कि वे मीडिया से मदद की उम्मीद कर रहे हैं। संगीत की बिक्री से साप्ताहिक आंकड़े कह रहे हैं कि पिछले ही हफ्ते रिलीज हुए टी-सीरिज की फिल्म 'कर्ज' (हिमेश रेशमिया) के म्युजिक ने 'रॉक ऑन' को महानगरों की बिक्री में पछाड़ दिया है। अब एक ही हफ्ते में यह कैसे संभव है? 'रॉक ऑन' की टीम चाहती है कि मीडिया इसे मुद्दा बनाए, पर्दाफाश करे। ताकि उनकी फिल्म को चर्चा मिले और दर्शक फिल्म देखने जाएं। सचमुच यह बात कुछ हजम नहीं हुई।

Wednesday, September 10, 2008

तनुश्री का सेंसेक्स

यह सही है कि जिस डाल पर आप बैठे हैं, वह टूट भी सकती है। परंतु आश्चर्य तो तब हो, जब आप खुद ही उस डाल को काटने लगें, जिस पर बैठे हैं। कहते हैं कि कवि कालिदास ने कभी ऐसा ही किया था। परंतु तब वे मूर्ख शिरोमणि थे। लेकिन अब जबकि तनुश्री दत्ता यह काम कर रही हैं, उन्हें क्या कहा जाए? उनकी फिल्म 'सास बहू और सेंसेक्स' आने वाली है। परंतु तनुश्री इस फिल्म के बारे में बात करते हुए यह जरूर कहती हैं कि इस फिल्म की डायरेक्टर में इतनी काबीलियत नहीं कि वह हिट फिल्म दे सके। यह क्या बात हुई...? डायरेक्टर को फिल्म नाम के जहाज का कप्तान कहा जाता है। जब कप्तान में भरोसा ही नहीं था, तो तनुश्री ने यह सवारी क्यों की? कारण यह कि इस फिल्म के बहाने तनुश्री को इंटरनटेशनल प्रोड्यूसरों के साथ काम करने का मौका मिल रहा था। यह फिल्म हॉलीवुड कंपनी वार्नर ब्रदर्स ने बनाई है। फिल्म तैयार है और इन दिनों इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रचार किया जा रहा है। परंतु तनुश्री के अनूठे अंदाज ने फिल्म से जुड़े लोगों की सांस आफत में डाल दी है। तनुश्री की बात पर भरोसा कर लें कि डायरेक्टर काबिल नहीं, तो तय है कि 'सास बहू और सेंसेक्स' बॉक्स ऑफिस पर डूब ही जाएगी! इस फिल्म को शोना उर्वशी ने डायरेक्ट किया है, जिनकी पहली फिल्म 'चुपके से' बुरी तरह फ्लॉप रही थी।यह कोई पहली बार नहीं कि ऐक्टर अपने डायरेक्टर से नाराज है। नाराजगी होती है, परंतु कम से कम फिल्म की रिलीज से पहले कोई उसे व्यक्त नहीं करता। पहले सारा फील गुड पेश किया जाता है। रिलीज के बाद गुड़ गोबर सामने आता है। ताजा उदाहरण मल्लिका शेरावत का है। वे 'मान गए मुगल-ए-आजम' की रिलीज से पहले संजय छैल को बेहतरीन निर्देशक बता रही थीं। परंतु अब वे पानी पी पी कर डायरेक्टर को कोस रही हैं। डायरेक्टर को अपने हुजूर में सफाई पेश करने तक का मौका नहीं दे रहीं। छैल के एसएमएस संदेशों का कोई जवाब मल्लिका की ओर से नहीं आ रहा।लेकिन तनुश्री के पारे का सेंसेक्स फिल्म की रिलीज से पहले ही उछल रहा है और वे जम कर उर्वशी की बुराई कर रही हैं। असल में, फिल्म की मेकिंग के दौरान ही दोनों में खटपट शुरू हो गई थी क्योंकि यह पूर्व मिस इंडिया, शोना के काम करने के तरीके से नाखुश थी। शोना ही बहन, मासूमी भी फिल्म में है। तनुश्री को पूरे वक्त यह लगता रहा कि शोना अपनी बहन के रोल पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं, उनके रोल पर नहीं। इर्ष्या की यह चिंगारी अब आग की तरह भडक़ रही है। वैसे तनुश्री का यह तीखी मिर्ची वाला अंदाज नया नहीं है। उनकी पहली फिल्म 'चॉकलेट' के डायरेक्टर, विवेक अग्निहोत्री से लेकर नाना पाटेकर जैसे सीनियर ऐक्टर और गणेश आचार्य जैसे कोरियोग्राफर तक तनुश्री से कई बार खरी खरी सुन चुके हैं। परंतु यह मौका थोड़ा अलग है। फिल्म की रिलीज से पहले ही वे उसका बंटाधार किए दे रही हैं! यदि बांगला ब्यूटी का यही अंदाज जारी रहा, तो उनके करियर के सेंसेक्स का तीर आखिर कब तक आसमान की दिशा मे नजर आएगा?

Thursday, September 4, 2008

बॉलीवुड का स्वर्णिम दौर


बॉलीवुड सिनेमा के आर्थिक पक्ष पर चर्चा करना अब वक्त खराब करने से कम नहीं। सही आंकड़े कोई प्रोडक्शन हाउस जारी नहीं करता। सितारे अपनी फीस झूठ बताते हैं। कमाते पंद्रह हैं, बताते पचास हैं। हिट का गणित भी ऐंद्रजालिक है...। जिस फिल्म को समीक्षक फ्लॉप बताते हैं, उसके रिलीज होने के दूसरे-तीसरे दिन ही शहरों में फिल्म के पोस्टर चिपके होते हैं, सुपर हिट!! क्या झूठ मानिए, क्या सच...? खुद सिनेमावाले इस पर एकमत नहीं दिखते। परंतु इसमें संदेह नहीं कि हिंदी सिनेमा ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसमें धन की बाढ़ आई हुई है, जो बिहार की जल-बाढ़ के विपरीत कहीं सुखदायी है। अत: अब सिनेमा के आर्थिक मसले की चर्चा हो, तो उसके सुखद पक्ष पर ही हो सकती है। वह भी अतिशयोक्ति की तरह। जितनी अतिशयोक्ति, उतनी बढिय़ा चर्चा। करोड़ का आंकड़ा अब फिल्म में निर्माण में अपना जादू खो चुका है। फिल्म मेकिंग में अब 25 और 50 के बाद फिल्में 100 करोड़ की बात करने लगी हैं। हालांकि अब भी यह हॉलीवुड से काफी कम बताया जाता है। बॉलीवुड जिस आर्थिक स्वर्णिम दौर से गुजर रहा है, उसे देखते हुए टे्रड पंडितों का यही मानना है कि वह दिन दूर नहीं, जब बॉलीवुड में हर साल कम से कम 50 से 100 ऐसी फिल्में बनेंगी, जो 50 से 100 करोड़ के बजट की होंगी। फिलहाल यह अतिशयोक्ति लगे, परंतु सचमुच ऐसा वक्त आने लगा है। कारण...? प्रोड्यूसर अब पूरी दुनिया में फैल चुके बॉलीवुड फिल्मों के बाजार को देख कर गणित बैठाते हैं। वह दौर नहीं रहा कि सिर्फ मुंबई में चलने से फिल्म हिट कहलाएगी।प्रोड्यूसरों ने फिल्मों की लागत क्षमता का बढऩा मंजूर किया है, तभी निर्देशकों, ऐक्टरों और तकनीशियनों की फीस बहुत मोटी हो चुकी है। मामला तो यहां तक है कि हिट होने के बाद डायरेक्टर और ऐक्टर फिल्म के निर्माण में मुनाफा हासिल करते हैं और कई बार खुद भी प्रोड्यूसर हो जाते हैं। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर, मधुर भंडारकर, विशाल भारद्वाज कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं। ऐक्टरों में देखें, तो शाहरुख खान, आमिर खान, सलमान खान, ऋतिक रोशन के बाद अब सैफ अली खान की फिल्म निर्माण में लग गए हैं। सभी सितारे फिल्मों में काम करने की मोटी फीस तो लेते हैं, साथ ही प्रोड्यूसर के मुनाफे में हिस्सा भी।रोचक तथ्य यह है कि फिल्म का निर्माण करने वालों में उन लोगों का भरोसा बढ़ा है, जो फिल्मों के लिए धन एडवांस में जारी करते हैं। बीच में वह वक्त चला गया था, जब वितरक निर्माणाधीन फिल्मों के रशेज देख कर प्रोड्ूयूसर को एडवांस पैसा देते थे। परंतु यह वक्त फिर लौट आया है। अब तो स्थिति यह है कि कुछ मामलों में फिल्म घोषित हुई और वितरक ने कई करोड़ में अधिकार खरीद लिए, विश्व वितरण के। क्या फिल्म बनेगी, कैसी बनेगी...? सोचा भी नहीं। हाल में बॉलीवुड में ऐसा सबसे बड़ा सौदा हुआ, जब वितरक कंपनी स्टूडियो 18 ने विपुल शाह के निर्देशन में बनने वाली फिल्म 'लंदन ड्रीम्स' (सलमान खान, अजय देवगन) के अधिकार 120 करोड़ रुपये में खरीदे। फिल्म शुरू भी नहीं हुई और प्रोड्यूसर ने मोटा मुनाफा कमा लिया। अब इससे बढ़ कर स्वर्णकाल की नजीर क्या हो सकती है?

Wednesday, September 3, 2008

क्या अक्षय हैं नए नं. 1


हालांकि अभी इसकी अधिकृत घोषणा नहीं हुई है। परंतु शाहरुख खान समझ चुके हैं कि अक्षय कुमार ने उनके किले में सेंध लगा दी है। यूं तो कोई भी सितारा नंबर गेम में प्रत्यक्ष रूप से भरोसा नहीं दिखाता। परंतु अंदर-अंदर सब सबकी खबर रखते हैं। 'सिंग इज किंग' की सफलता के बाद अक्षय तो छुट्टियां मनाने के लिए पत्नी और बच्चे समेत मोंटे कार्लो निकल गए हैं। परंतु इंडस्ट्री में एक खबर मक्खी की तरह भनभना रही है कि 'एक अव्वल ऐक्टर' है, जो अक्षय की फिल्म के कलेक्शन से लेकर अभिनेता के रूप में उनकी वास्तविक स्थिति को जानने के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए है। वह फिल्म समीक्षकों को एसएमएसभेज रहा है और उनसे फोन पर बात कर रहा है। क्या वाकई अक्षय नंबर 1 तो नहीं हो गए? खैर, इस ऐक्टर के लिए राहत की बात यह है कि कम से कम इस साल तो अक्षय की कोई फिल्म आने को नहीं बची। 'चांदनी चौक टू चाइना' दिसंबर में रिलीज होने वाली थी, परंतु इस फिल्म के कुछ हिस्से फिर से शूट किए जाने हैं, इसलिए प्रोड्यूसरों ने इसे अगले साल सिनेमाघरों में उतारने का फैसला किया है।यह बात हर कोई मान रहा है कि पिछले कुछ सालों में अक्षय कॉमेडी, ऐक्शन और रोमांस तीनों ही में चैंपियन बन कर उभरे हैं। उनकी लोकप्रियता कई गुना बढ़ी हैं। वे उन सितारों की सूची में आ गए हैं, जो अपने अकेले दम पर किसी फिल्म को न केवल शानदार ओपनिंग दिला सकते है। बल्कि चला भी सकते हैं। किसी भी सितारे से और क्या उम्मीद की जाती है? दर्शकों के मनोरंजन के मामले में भी अक्षय सौ फीसदी खरे उतरे हैं। 'टशन' जैसी फिल्म नहीं भी चली, तो भी सबने यह माना कि जितने हिस्से में अक्षय नजर आते हैं, वहां फिल्म में जान रहती है। अब दर्शकों को अक्षय को देखने के लिए कुछ महीनों का इंतजार करना होगा। 2007 के बाद 2008 में भी अक्षय शानदार रहे हैं और उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले अपने ज्यादा भरोसेमंद होने को साबित किया। लगातार दो शानदार वर्षों के बाद अगले साल भी सबकी नजरें उन पर होंगी और हर कोई देखना चाहेगा कि क्या अक्षय सफल वर्षों की हैट्रिक लगा पाएंगे? ऐसा ना हो... इसकी कोई आशंका नजर नहीं आती क्योंकि अक्षय फिल्मों का जो लाइन-अप है, वह खुद-ब-खुद भविष्य का किस्सा बयान कर देता है।विश्वास करें कि सफलता के लिए अक्षय का थाल सजा है। आने वाले साल में भी वे दूसरे सितारों की नींद और चैन छीने रहेंगे। उनके पास 4 बड़ी फिल्में हैं, जो 2009 में आएंगी। ये हैं 'चांदनी चौक टू चाइना', 'कमबख्त इश्क', 'एट बाई टेन' और 'ब्लू'। इन फिल्मों में कॉमेडी, रोमांस, ऐक्शन... सब कुछ है। अक्षय के पास साजिद खान की 3 हीरोइनों वाली 'हाउसफुल' भी है और इम्तियाज अली की एक अनटाइटल्ड फिल्म में भी वही हीरो हैं। इसके अलावा दर्जनों प्रोड्यूसर-डायरेक्टर उनके दरवाजे पर कतार लगाए हुए हैं। छुट्टियों से लौटने के बाद अक्षय 'चांदनी चौक...' का बचा हुआ काम पूरा करेंगे। उसके बाद 'एट बाई टेन' की शूटिंग। साजिद की 'हाउसफुल' की शूटिंग अक्तूबर में शुरू होगी। अक्षय का शेड्यूल पैक है। जैसा कि किसी भी बड़े सितारे का होता है। उन्हें फुर्सत नहीं है यह जानने की कौन ऐक्टर मार्केट में उनकी साख के ताप को नापने वाला थर्मामीटर लिए घूम रहा है?

Saturday, August 30, 2008

रामू, कौवा और मल्लिका


फिल्म समीक्षक जितनी जोर से कह रहे हैं कि निर्देशक राम गोपाल वर्मा की 'फूंक' बुरी फिल्म है, रामू उतने जोर से फिल्म को दर्शकों की स्वीकृति मिलने का दावा कर रहे हैं। टे्रड विशेषज्ञ जब आंकड़े लहरा-लहरा कर कह रहे हैं कि रामू की फिल्म के कलेक्शन पहले ही दिन दो शो बाद औंधे मुंह गिरे, रामू उतने ही दमखम से कह रहे हैं कि उनकी 3 करोड़ की लागत वाली फिल्म ने पहले 3 दिनों में ही 5 करोड़ रुपये कमा लिए। कोई कुछ भी कहे, रामू ने फिल्म की सफलता की जोरदार पार्टी मुंबई में दे डाली है। वे बहुत खुश हैं कि आखिरकार टिकट खिडक़ी के गणित को उन्होंने अंगूठा दिखा दिया है। रामू अपनी हाजिर जवाबी और चुटीले जवाब देने के लिए शुरू से इंडस्ट्री में विख्यात हैं। 'फूंक' के बारे में पूछे जा रहे सवालों पर भी वे अपने अंदाज में बातें कर रहे हैं।इसी चुटीले अंदाज में रामू ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर परदे पर स्टार क्या चीज होती है? जवाब है, कुछ नहीं। यदि कहानी में दम है और आपमें दर्शकों को आकर्षित करने का माद्दा, तो स्टार भले ही कौवा क्यों न हो, फिल्म देखने के लिए लोग पहुंचते हैं। रामू की मानें, तो 500 रुपये प्रति शिफ्ट में लाया जाने वाला कौवा उनकी 'फूंक' का हीरो है। असल में रामू ने यह बात तब कही, जब उनसे फिल्म की रिलीज से पहले पूछा गया था कि आखिर मल्लिका शेरावत की 'मान गए मुगल-ए-आजम' का मुकाबला वे कैसे करेंगे? उनकी फिल्म में तो कोई स्टार नहीं है? तब रामू का जवाब था, 'मेरी फिल्म में कौवा है।' वाकई रामू के कौवे ने मल्लिका को काट खाया है! मल्लिका की फिल्म पानी भी नहीं मांग पाई। अब मल्लिका का इस डायरेक्टर से चिढ़ जाना स्वाभाविक है। वैसे मल्लिका काफी दिनों से रामू से खार खाए हैं। अपनी 'कॉन्टे्रक्ट' में रामू ने एक पुलिस वाला दिखाया था, जो मल्लिका की तस्वीर के सामने 'आपत्तिजनक और उत्तेजक' बातें करता है। मल्लिका का तर्क है कि उनके नाम को इस तरह इस्तेमाल करके रामू ने खराब किया। मल्लिका रामू को कोर्ट का नोटिस भेजने वाली थीं। परंतु जाने क्या सोच कर उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्या वह सिर्फ मल्लिका का पब्लिसिटी स्टंट था?हालांकि पब्लिसिटी के दांव-पेंच चलने में रामू भी कुछ कम नहीं। उन्होंने कहा था कि जो उनकी फिल्म को सिनेमाघर के अंधेरे में अकेले बैठ कर देख लेगा, उसे 5 लाख का इनाम मिला। इस प्रतियोगिता के लिए चुन गए 5 लोगों को रामू और उनके प्रोड्यूसर ने पूरा हॉल खुद बुक करके अपना दमखम साबित करने को कहा। अब कोई क्यों खुद हॉल बुक कराता? रामू आखिरी वक्त पर गच्चा दे गए और प्रोड्यूसर के साथ मिल कर 5 लाख दबा गए। अब 'फूंक' के सीक्वल की बातें भी हो रही हैं। रामू तो इनकार कर रहे हैं। परंतु उनके प्रोड्यूसर ने अखबारों में सीक्वल का विज्ञापन दिया है और कहा है कि जो भी रामू को सीक्वल का सही आइडिये देगा... उसे 10 लाख रुपये का ईनाम मिलेगा। जब 5 लाख में बेईमानी हो गई, तो 10 लाख की क्या गारंटी? साहब, ये है फिल्मी चक्कर...!!

Friday, August 22, 2008

दीपिका के लिए कुछ पाठ


करियर की दूसरी फिल्म रिलीज हुई है और दीपिका पादुकोण के दिल से धुआं उठ रहा है। दो कारण हैं। एक तो समीक्षकों ने लिख दिया है कि उन्हें ऐक्टिंग के टे्रनिंग स्कूल में जाना चाहिए। दूसरे दर्शकों ने वह भाव नहीं दिए, जो 'ओम शांति ओम' में दिए थे। दीपिका को तत्काल समझ लेना चाहिए कि 'ओम...' की सफलता उनकी अपनी नहीं थी। उसके पीछे प्रोड्यूसर-स्टार शाहरुख खान और मार्केटिंग के खेल थे, जिन्होंने दीपिका को रातोंरात स्टार बनाया। असली परीक्षा अब शुरू हुई है। ग्लैमर की जो चकाचौंध थी, हालांकि वह यश चोपड़ा बैनर की फिल्म में थोड़ी बहुत अब भी बाकी है। परंतु इतनी चमक-दमक आखिर कितने प्रोड्यूसर मुहैया करा सकते हैं और फिर हर बार शाहरुख तथा चोपड़ाओं के नाम का जादू दीपिका के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता। इंडस्ट्री में माना जाता है कि किसी को भी उसकी पहली फिल्म से मत जांचो। सिनेमा में कुछ भी संभव है। पहली सफलता जादुई भी होती है और कई बार पहले का दबाव काम को खराब कर देता है। अत: अब दीपिका के लिए दूसरी फिल्म से उस द्वंद्व की शुरुआत हो चुकी है, जिसमें वह अपनी पहली फिल्म के बाद महीनों और सालों से मेहनत कर रही, दूसरी तारिकाओं से अचानक मीलों आगे खड़ी दिख रही थीं।'बचना ऐ हसीनो' की रिलीज के साथ दीपिका एक और मुश्किल का सामना कर रही हैं। वह यह कि लोग उनके बजाय बिपाशा बसु के साथ रणबीर की जोड़ी को पसंद कर रहे हैं। खुद रणबीर फिल्म के प्रमोशन में उछल-उछल कर कह रहे थे कि फिल्म की तीनों हसीनों में से बिपाशा सबसे सेक्सी है। दर्शक-समीक्षक उनकी बात पर मुहर लगा रहे हैं... और दीपिका कुछ नहीं कर पा रहीं। हालांकि इस समस्या का संबंध उनके करियर से भी है, परंतु फिलहाल यह निजी ज्यादा है। रणबीर से दीपिका का प्रेम संबंध किसी से छुपा नहीं है क्योंकि इन दिनों बॉलीवुड में इश्क को छुपाने का चलन नहीं है। वह खुले में है, तो सम्माननीय है। ऐसा माना जाने लगा है। लेकिन ऐसे में एक मुश्किल यह है कि जब कभी संबंध दरकते हैं या उनका ताप कम होता है, तो मीडिया में तीखा तडक़ा लगता है। अत: मीडिया का एक वर्ग यह बात तेजी से उछाल रहा है कि दीपिका के साथ नहीं, बल्कि बिपाशा के साथ रणबीर खूब जमे।दीपिका को एक और पाठ 'बचना ऐ हसीनो' की सीनियर को-स्टार बिपाशा बसु पढ़ा रही हैं। वे खुद सबसे कह रही हैं कि इस फिल्म में सबसे अच्छे मैं और रणबीर लगे हैं। ...इसका मतलब क्या? साफ है कि वे बातों-बातों मे अपने आप को दीपिका-मिनीषा से बढिय़ा बता रही हैं। बिपाशा इस खेल में माहिर हैं। 'अजनबी' से लेकर 'रेस' तक मल्टी-हीरोइनों वाली फिल्मों में वे यह खेलती रही हैं। यही नहीं, हाल के इंटरव्युओं में रणबीर ने साफ कहा है कि मैं शादी उसी लडक़ी से करूंगा, जिससे माता-पिता चाहेंगे। हालांकि इससे दीपिका के लिए उनके पे्रम को कम आंकना जल्दबाजी होगी। परंतु दीपिका के लिए जरूरी है कि वे को इस सिनेमाई दुनिया के खेल में बने रहने के नियम जितनी जल्दी हो सके, सीख ले। यदि दूसरी फिल्म के दौरान मिले सबक से वे कुछ सीख नहीं पाएंगी, तो लंबी रेस में कैसे बनी रह पाएंगी?

Friday, August 15, 2008

संदिग्ध शाहरुख!


वंशवृक्ष के हिसाब से तो वे पेशावर के पठान हैं, मगर अपने फिल्मी दोस्तों के बीच शाहरुख खान खुद को 'दिल्ली का गुंडा' बताते हैं। यह हंसी-मजाक में होता है। इसी हंसी-मजाक में ही उन्होंने कुछ समय पहले, आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट में अपनी कोलकाता टीम का एक विज्ञापन बनवाया था। जिसमें उन्होंने अपने खिलाडिय़ों को 'गुंडा' बताया था। सवाल किया था कि कौन कराएगा इन विलेंस का मिलन? गौर करें कि इधर जाने-अनजाने ही शाहरुख की छवि बदल गई है। वे एक नर्मदिल प्रेमी, आज्ञाकारी और आदर्शवादी युवा के विपरीत आक्रामकता का दूसरा नाम हो गए हैं। चाहे संतोष धन को चुनौती देता हुआ '...और विश करो' का पाठ पढ़ाता शाहरुख हो या फिर 'ओम शांति ओम' की मार्केटिंग करता हुआ प्रोड्यूसर शाहरुख। अब शाहरुख घरेलू चेहरे के रूप में नजर नहीं आते, बल्कि उस बाजार के हिस्से के रूप में दिखते हैं जो आपके घर में आक्रामक ढंग से घुस कर हर पल जबर्दस्ती कुछ बेचना चाहता है। क्या शाहरुख ने अपनी 'जेंटिलमैन' छवि खो दी है? वह छवि, जिसमें बच्चों से बूढ़े तक सब उनको प्यार कर सकते हैं। उन पर भरोसा कर सकते हैं। कुछेक महीनों पहले तक शाहरुख बहुत ही विनम्र और घरेलू इनसान की तरह नजर आते थे। परंतु पिछले कुछ समय से शाहरुख की आक्रामकता उनकी इस छवि पर हावी हो गई है। अब वे उतने 'दिलवाले' नहीं दिखते जितने कभी नजर आया करते थे। चेहरा गवाही देता है! साफ हो चुका है कि शाहरुख की लोकप्रियता को पहले बाजार ने अपनाया, जैसा कि वह हर लोकप्रिय व्यक्ति को अपनाता है। मगर बाद में शाहरुख ने बाजार की आक्रामकता को अपना लिया। परंतु इस आदान-प्रदान से शाहरुख नुकसान में नजर आ रहे हैं। उनका भोलापन (जिसके लिए उन्हें लोगों ने 'डर' और 'बाजीगर' जैसी फिल्में करने के बावजूद प्यार दिया) खो गया है। उनकी घरेलू छवि खंडित हो रही है। नंबर 1 पर बने रहने की जिद में, खुद फिल्म इंडस्ट्री के कई लोगों के लिए वे संदिग्ध हो गए हैं। कभी उनकी छवि प्यार से बुजुर्गों को जीतने वाले युवा की थी (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, परदेस, मोहब्बतें)। परंतु अब वे अमिताभ बच्चन के साथ अपने प्रतिद्वंद्विता के लिए याद किए जाते हैं। बिग बी जब आरोप लगाते हैं कि कोई उनके अनफॉरगेटेबल वल्र्ड टूर को नुकसान पहुंचाना चाहता है, तो उंगलियां शाहरुख की तरफ भी उठती हैं। सलमान खान ने कभी पुरान झगड़ा भूल कर शाहरुख को फराह खान की डांस पार्टी में गले लगाया था, परंतु सलमान की गर्लफ्रेंड कैटरीना की जन्मदिन पार्टी में सलमान से झगड़े में शाहरुख का नाम आता है। अक्षय कुमार जैसा ऐक्टर यह आरोप लगात है कि एक सीनियर अभिनेता उनके उठते करियर ग्राफ से जल कर उनके बारे में उल्टी सीधी अफवाहें फैला रहा है, तब इशारों में लोग इंडस्ट्री के 'बादशाह' की ओर संकेत करते हैं। शाहरुख की प्रोड्यूस की हुई फिल्म में जब पूरी इंडस्ट्री के सितारे नाचते हैं, तो ऋतिक रोशन खुद को दूर रखते हैं, तो इसके लिए अतीत की प्रतिद्विंद्विता के पन्ने सामने आते हैं। जिसमें शाहरुख के मन की कड़वाहट दबी है। यह आक्रामकता शाहरुख को कहां ले जाएगी... यह शाहरुख भी नहीं जानते। परंतु शाहरुख के लिए यह महत्वपूर्ण समय है कि वे खुद तय करें, इतिहास में वे कैसे याद किया जाना चाहते हैं? एक विनम्र, दिलदार, हर दिल अजीज चेहरा या फिर आक्रामक, बेचैन और गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा में किसी का भी विश्वास हासिल न कर पाने वाला बाजार की ताकतों का मोहरा!

Thursday, August 14, 2008

सलमान एक शिकार हैं?


इन दिनों सलमान खान शहीदाना मुद्रा में हैं। मामला है शाहरुख खान के साथ उनके उस विवाद का, जो कैटरीना कैफ के जन्मदिन पर पिछले महीने हुआ था। तब से अब जाकर सलमान मीडिया के सामने आए हैं। उनकी फिल्म 'गॉड तुसी ग्रेट' हो शुक्रवार को रिलीज हो रही है। वे फिल्म के प्रमोशन की बातें करना चाहते हैं। परंतु मीडिया की मजबूरी है कि उसे हर छुपी चीज पर से परदा उठाना है। सो, मीडियावाले उनसे वह सब जानना चाहते हैं, जो कैटरीना की बर्थडे पार्टी में हुआ। जिसे कुछ आंखों ने ही देखा-सुना। जो बातें मीडिया में आईं, उनमें कहा गया कि गलती सलमान की थी। वे मेजबान थे और उन्होंने मेहमान से बदतमीजी की। बताया गया कि कैटरीना भी इस बात के लिए सलमान से नाराज हो गईं। जैसे जैसे कैटरीना की स्टार हैसियत बड़ी हो रही है, वैसे वैसे सलमान से उनकी दूरियां बढऩे की खबरें हैं। सलमान के लिए यह तनाव का कारण है।अब सलमान कह रहे हैं कि उन्होंने कभी मीडिया में अपना मुंह नहीं खोला और इसीलिए उनकी छवि गलत बनी है। शाहरुख से विवाद मामले में भी यही हुआ। सलमान का अप्रत्यक्ष आरोप है कि शाहरुख कैंप ने इस विवाद में उनके खिलाफ बातें फैलाई हैं। जबकि सच कुछ और है। उल्लेखनीय है कि दोनों सुपर सितारों के बीच विवाद के 2 कारण सामने आए हैं। एक तो यह कि शाहरुख ने सलमान की पुरानी पे्रमिका ऐश्वर्य पर कोई चुटकुला उछाल दिया था। दूसरे यह कि सलमान के टीवी पर चल रहे शो '10 का दम' पर किंग खान ने तीखा प्रहार किया था। बात चाहे जो हो, परंतु सलमान अपने तेवरों के मुताबिक भडक़ गए और तू-तू-मैं-मैं हो गई।सलमान अब जिस तरह की बात मीडिया में कर रहे हैं उससे साफ है कि वे खुद को 'शिकार' बता रहे हैं। अपनी साफगोई के मुताबिक उन्होंने कह दिया है कि इस बार जो मनमुटाव हुआ है, उसके बाद वे और शाहरुख आंख से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में नहीं हंै। यानी खानों के रिश्तों में उभर आई यह खाई अब पाटी नहीं जा पाएगी। सलमान के बयानों पर शाहरुख ने कुछ नहीं कहा है। परंतु सलमान ने यह साफ कह कर कि अब कभी रिश्ते नहीं सुधरेंगे, स्पष्ट कर दिया है कि शाहरुख की ओर से ऐसी कोई बात है जिसे वे माफ नहीं कर पाएंगे। ऐसे में शाहरुख भी चाहेंगे कि कठघरे में खड़े होने के बजाय अपना पक्ष सामने रखें। वर्ना यह सदा के लिए रहस्य ही रह जाएगा कि आखिर बात क्या थी और क्यों सलमान ने पार्टी में तथा उसके बाद भी आक्रामक रवैया अपनाए रखा? क्या सलमान बताना चाहते हैं कि जब तक वे चुप्पी साधे हैं, सबके चेहरों पर नकाब पड़े रहेंगे? परंतु शाहरुख क्यों चाहेंगे कि उनके दुश्मन को 'संदेह का लाभ' मिले। चाहे अप्रत्यक्ष रूप में सही। अत: उन्हें भी आज नहीं तो कल मुंह खोलना पड़ेगा। वैसे शाहरुख के खिलाफ एक बात इन दिनों जाती है। उन्होंने पिछले कुछ सालों में मीडिया का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने से अधिक अपने विरोधियों को निपटाने में किया है। सलमान मामले में भी क्या उन्होंने ऐसा किया है? सलमान की छवि भले ही बिगड़ैल की हो, परंतु उम्र के चालीस पार दौर में उनका गुस्सा सिर्फ उनके खिलाफ रह गया है, जो उनसे आगे रह कर पंगा लेते हैं। इसमें संदेह नहीं। आखिर उन्हें दोस्तों का दोस्त कहने वाले भी तो कम नहीं!!