Wednesday, December 17, 2008

कौन करे समीक्षक की परवाह?

यह बात लोगों को आकर्षित करती है कि आप फिल्म समीक्षक हैं। लोग समझते है कि आपके मजे हैं। मुफ्त फिल्में देखते हैं। समीक्षा में ज्यादा स्टार पाने के लिए सितारे और निर्देशक आपकी चिरौरी करते हैं। प्रोड्यूसर 'गिफ्ट' देता है। वगैरह वगैरह। परंतु हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। अधिकतर अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर फिल्म समीक्षा ऐसे अंदाज में होती है, मानो इसके लिए किसी योग्यता की ही जरूरत नहीं। कभी समीक्षक के शब्दों की गरिमा होती थी। लेकिन अब सिनेमा हॉल से निकलता दर्शक जो दो शब्द कैमरे के सामने कह दे, वही सच है। इस परिदृश्य में कौन समीक्षक की परवाह करे? मुंबई की घटना है। एक पीआरओ ने अपनी फिल्म के पे्रस शो में से एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक को भगा दिया। समीक्षक देर से प्रिव्यू-थियेटर में पहुंचा था। जहां उसकी सीट हमेशा तय होती है। उस दिन समीक्षक देर से आया। सीट पर कोई और था। समीक्षक की जिद थी, वह उसी सीट पर बैठेगा। पीआरओ अपनी पुरानी फिल्मों की खिंचाई पर पहले ही समीक्षक से चिढ़ा था। उसने समीक्षक को सार्वजनिक रूप से अपमानित करके भगा दिया कि उसे मालूम है, वह इस फिल्म के बारे मे बुरा ही लिखेगा!! वहां मौजूद बाकी समीक्षक भीगी बिल्ली बने, गरजते पीआरओ को देखते रहते। असल में, प्रेस शो अब वह अवसर है, जिसे पीआरओ प्रोड्यूसर के पैसों से समोसे, सैंडविच, वेफर, एक मिठाई और छोटे वाले कोल्ड ड्रिंक से सजाता है। समीक्षक फिल्म देखता है और इंटरवेल में 'अल्पाहार' करते हुए फिल्म की नुक्ताचीनी करता है। पे्रस शो में फिल्म देखने से समीक्षक को सिर्फ इतना लाभ होता है कि हॉल में खर्च होने वाले उसके सौ-सवा सौ रुपये बच जाते हैं!वास्तव में, सिनेमा के धंधे में अब फिल्म समीक्षक सबसे गौण हो गया है। प्रोड्यूसर को रिलीज से पहले पब्लिसिटी चाहिए होती है। वह पहले से टीवी चैनलों के लिए 'बाइट्स' तथा प्रिंट के लिए 'स्टोरीज' तैयार रखता है। सिने-मीडिया को रेडीमेड सामग्री मिलती है और इस समाग्री से फिल्म पत्रकारिता का निर्वाह होता है। फिल्म का डायरेक्टर और ऐक्टर रिलीज से पहले एकाध घंटे के लिए मीडिया को उपलब्ध होते हैं। यदि फिल्म का हीरो कोई सितारा हुआ, तो वह कुछ मिनटों के लिए मिलता है। हालांकि सितारा अगर प्रोड्यूसर भी हुआ, तो मीडिया को पर्याप्त एंटरटेन करता है। वह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देता है, तो चैनल पर 'स्पेशल और फेवरेबल' कवरेज भी मांगता हैं। चैनलों की मजबूरी है। वे सितारों के आगे झुकते हैं।वैसे अब फिल्म के प्रिव्यू की अनिवार्यता भी खत्म हो रही है। भट्ट कैंप ने तो लंबा अर्सा हुआ, मीडिया को फिल्म दिखाना बंद कर दिया। पे्रस प्रीव्यू अब पीआर कंपनियों के भरोसे चलते हैं। ऐसी ज्यादातर कंपनियां नई-नवेली युवतियों के भरोसे चलती हैं। जिन्हें न मीडिया की समझ होती है और न समीक्षकों का पता। ज्यादातर पीआर कंपनियां प्रेस शो के नाम पर 'फस्ट डे फस्र्ट शो' के टिकट समीक्षकों को उपलब्ध कराती हैं। इधर, फिल्म के प्रीमियर का चलन भी कम हो चला है। किसी फिल्म का प्रीमियर होता भी है, तो सितारों, उनके मेहमानों और फिल्म से जुड़े लोगों के लिए। सीटें बची, तो समीक्षक को एकाध घंटे पहले निमंत्रण मिलता है। विडंबना देखिए कि जो समीक्षक फिल्म के बारे में घंटों बोलते और कई कई पन्ने लिखते हैं, खुद अपने हाल पर न कभी उनकी जुबान खुलती है और न कलम चलती है।

No comments: